सोमवार, 28 अप्रैल 2008

ये सूचना का युद्ध है दोस्‍त, विचार तो…..

असहमति आपको जिंदा बनाए रखती है। क्‍योंकि वह हमेशा विचार के साथ रहती है। जैसे मन्‍ना को याने भवानी प्रसाद मिश्र को थी अपने गुरू विनोबा से, इंदिरा की इमरजेंसी को लेकर। वैसे जीवन की इच्‍छा और मृत्‍यु का सच दोनों एक दूसरे के प्रति असहमति ही हैं। बहरहाल, असहमति बाजार से ही है, वह भी बाजार में रहकर। तभी तो सुबह, दोपहर और शाम की चाय की चुस्‍कियों में मीडिया की अंदर और बाहर की असहमति जिसे मैं एक इंसान का स्‍वाभाविक बागीपन कहता हूं घुलती रहती है। बहस यही थी कि असहमति के लक्षण, विचार और शरीर के कौन से भाग और कौन से काम से बाहर आते हैं।
आदमी पूरा बाजारू नहीं हो सकता क्‍योंकि एक दूसरा आदमी उससे जुडा हुआ है। और जब तक दो हैं तब तक धन से परे घर बनते रहेंगे, मेरे जैसे कई लिखते रहेंगे और मुंह में चाय, सिगरेट का धुंआ और पान का पीक घुलता रहेगा। वैसे बाजार में भी ताकत नहीं कि आदमी को निगल जाए।
बात एक बात का हिस्‍सा भी रही और अरूण थोरात की दोस्‍ती का भी, अरूण उम्र में काफी बडे हैं, अंतर तकरीबन 14 से 15 साल का होगा। चार से पांच महिने हुए साथ में ही एक टैलिविजन मीडिया की नौकरी जॉइन की। याने बाजार को पैदा करने वाले प्रोडक्‍शन हाउस में खुदको बेचा। तीसरे दिन आवाज सुनी सुरीली और मधुर, कानों में मीठा रस घोलने वाली। अंदर तक एक अनोखी तृप्‍ति देने वाली। ऐसी जिसे सुने लंबा अरसा बीत गया। ज्‍यादा तो याद नहीं पर हां घर की सुबह अलमारी पर रखे रेडियो की उसी सयानी आवाज से सुबह आंख पलकें उठाती थी। तम्‍बाकू मसलते पिता की हमें स्‍कूल जाने के लिए उठाने की आवाज और उधर मां के बरतन धोने की आवाज इन दोनों के बीच बिनाका के गीतों की माला बनाने वाली वह आवाज, ये सारी ही आवाजें तन से लेकर मन के रेशे-रेश को एक नई ताजगी से भर देती थी।
खैर, तो मैं यह कह रहा था कि जब सालों बाद भोर के इस शोर में वही आवाज सुनी तो एडिट रूम से दौडता हुआ नीचे आया , कंधे पर झोला लटकाए, एक पट्टेदार टी शर्ट और दो तीन जेबों वाली कार्गो पहने जो उन पर बिल्‍कुल अच्‍छी नहीं लग रही थी मगर अरूणजी के स्‍पोर्ट सम्‍भालने के चलते गले शरीर पर लटक गयी। कहा गया आप स्‍पोर्ट देखेंगे पेंट शर्ट जमेंगे नहीं। इसलिए थोडा ध्‍यान रखिए। वैसे अरूणजी क्रिकेट बडा अच्‍छा खेलते हैं। ये और बात है कि क्रिकेट के नाम पर हाशिये पर पडे मध्‍यप्रदेश क्रिकेट बोर्ड ने उन्‍हें कभी मौका नहीं दिया।
बहरहाल, अरूण से हाथ मिलाया। पूछा क्‍या वो आपकी आवाज थी….. राजस्‍थान पेलेस ऑन व्‍हील्‍स….. चेहरे पर गेंहुए रंग को अपनी मुस्‍कुराहट में और फैलाते हुए अरूण बोले जी हां कैसी लगी….. बेहतर है न….. यह आवाजी जवाब भी नायाब था। दिन बीत गए मुंबई जैसे शहर में, वो भी खासकर एक चैनल में इतनी शुद्ध और साफ हिन्‍दी सुने। मैं झेंप गया ….. फिर सम्‍भला उनके दोनों हाथों पर अपने दोनों हाथ रखते हुए मुस्‍कुराता हुआ बोला ….. क्‍या बात कर रहे हैं जनाब….. दिन हो गए कभी भाषा के महसूस किये।
अरूण फिर हंसे ….. शुक्रिया …..शुक्रिया अपनी निहायती साफ, भारी और लचीली आवाज में बोले ….. मजाक मत कीजिए। पर मैं गंभीर था उतना ही जितना कि वे उसे मजाक समझ रहे थे। ये और बात है कि हम दोनों के बीच ये उतना ही सही था कि खुलेमन और साफ नीयत से तारीफ करने वाले जाने कहां खो गए हैं…..शायद मैं उनके लिए नया था जाहिर है मेरा अंदाज भी कि एक अच्‍छी और चीज की कद्र और प्रशंसा दोनों ही होनी चाहिए।
बहरहाल, बातें देर तक चलीं …..पता लगा मियां भोपाली हैं और पिछले छ सालों से मुंबई की लोकल में जिदंगी के स्‍थायी मायने तलाशते गलियों गलियों भटक रहे हैं। वैसे मध्‍यप्रदेश के कई अंचलों की अच्‍छी धूल भी फांकी है कि कई कई रेडियो स्‍टेशनों पर उनके मुताबिक भौंका है। और इस सीधी साधी को नौकरी को बडे ही सीधे ढंग से कई सालों तक किया है। लेकिन इस दौरान कब जिंदगी ने पलटा खाया और डिस्‍कवरी में काम करते हुए कब इस बाजार में याने चैनल में दाखिल हो गए पता ही न चला।
अरूण मेरे इंटरनेशनल सेगमेंट की खबरों के लिए वीओ करते हैं। फास्‍ट कट टू कट …..पूरी दुनिया को अपनी आवाज में समेटर, समय को घडियों के कांटों में लपेटकर सटासट निपटा देते हैं। लडाई बाजार की ही होती है। ब्रेक पर जाने और जाने दोनों के लिए।
अरूण ने 16 साल रेडियो की नौकरी की …..एक दिन साथ खाना खाते हुए पूछा आपने एफ एम क्‍यों नहीं जॉइन किया। वहां तो खासा स्‍कोप है….. धडल्‍ले से लाठ के लाठ रेडियो स्‍टेशन्‍स आ रहे हैं। अरूण मुस्‍कुराए….. फिर वही मुस्‍कुराहट तेज हंसी में तब्‍दील हुई….. मानों असहमति हंस रही हो….. वह भी खुली साफ और मीठी होकर । असहमति जो मेरी अचरजता में घुल गई….. एकाएक अरूण रूके, मानों इस दुनिया में अपनी अहसहमति को आवाज दे रहे हों ….. मैं बोलना चाहता हूं दोस्‍त….. वह जो अर्थो से लबालब हो …..वह जो मेरी आवाज के साथ साथ मेरे मन के हर एक स्‍पंदन को एक अर्थ दे….. मेरा समय मेरी आवाज की हत्‍या कर रहा है दोस्‍त ….. मोहम्‍मद रफी की आवाज सुनकर रोंगटे खडे कर रहा है एफ एम….. मरते मर जाउंगा पर एफ एम नहीं जाउंगा।
अरूण के चेहरे की खीज की भी एक आवाज थी। जिसे मैंने आवाज नहीं माना बल्‍कि एक असहमति माना, वहीं जिंदा रहने की असहमति, खुदको खुद तक बचाए रखने की असहमति….. वह असहमति जो इस समय ने हर आदमी के अंदर से गोंच की तरह चूस ली और जो बहुत ही कम के पास शेष है….. वही जो एक बार मेरे अंदर से आई थी चैनल की दहलीज पर कदम रखने के दौरान सूचना से विचारों को खत्‍म करने की…..वह असहमति भरी खीज जो रोजाना एक घटना के तथ्‍यों को समझदारी के तराजू में तौलकर उछालने या फिर खबर को बाजार के पैमाने पर नापकर बनाने पर बन रही थी। अरूण चुप रहे मानों जिस्‍म पर से सांप गुजर गया। छोड गया तो चुप्‍प और घुटती असहमति, अपने में ही कुंद और सार्थकता से मिलने के लिए छटपटाती खुदके होने के अर्थ तलाशती।
खैर, सांप तो मेरे उपर से भी गुजरा था, मगर असली नहीं बल्‍कि बाजारू, वही बडा सारा लंबा सा….. जहां जाता है खत्‍म ही नहीं होता….. जाने क्‍या क्‍या निगल जाएगा….. कम्‍बख्‍त जहरीला भी तो नहीं है कि एक ही बार काटे की रास्‍ते का कांटा ही साफ….. ये तो अजगर की तरह बदन पर लिपटकर हड्डियों को तोड रहा है। यहां तक कि रिश्‍तों और संबंधों को भी लील गया है। फिलहाल अरूण जी मुस्‍कुरा रहे हैं उसी असहमति के साथ जो उन्‍होंने जीवन में अब तक दिखाई है….. सहमति के बीच रहकर….. फिलहाल मैं भी सीख रहा हूं और कुछ डेटा कलेक्‍ट कर रहा हूं….. ग्राफिक्‍स बना रहा हूं….. कीनिया में 254 लोग मारे गए हैं।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

arun ji ko jitna khagaloge utna paoge...khagalne ke liye aapko kuch nahi, bas unke paas baaith jaana hai...baki sagar khud poochega ki kya chahiye...