मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

ऋण....

हृदय में जो था जता दिया है।
बोझ मन से उतार दिया है
न तो प्रियवर कहने को अब कुछ
ऋण था जो भी उतार दिया है।

चुप है रजनी, छिपी है बदली
आंखों में अश्रु की झरनी
जो था रीता, वो है बीता
खुदको मैंने सम्‍भाल लिया है।

है स्‍पर्श मन के भीतर
वचनबद्ध हूं खुदको कहकर
कल नहीं होगा जो आज घटा है
सत्‍य कटू था पर पी लिया है
ऋण था जो भी उतार…..

तम के ये चुभ रहे पल हैं
कल के बीते हुए ये छल हैं
दिन बीते जो साथ में प्रियवर
शूल से हृदय को भेद रहे हैं
लेकिन भीतर विरह की ज्‍वाला
सब कुछ मैंने निभा लिया है
ऋण था जो भी उतार…..

9 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…
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Unknown ने कहा…

hi sonu,
i likd the very first one..

gayatri

megha ने कहा…

parulhmm... acchi kavita hai...tum romantic poetry acchi karte ho..
very good..
keep it up..

Dost

Naren ने कहा…

This seems to be one of your best writing ... where do you rate this... or there is much more pearls to come out... Narendra

Sheetal Upadhyay ने कहा…
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Sheetal Upadhyay ने कहा…

aap ke lekhan ko mera salam !

....this is one of the best of your writings.
cheers!

बेनामी ने कहा…

रंगा है हर अल्फाज विरह के रंग
विरासत में मिला है लिखने का ढंग
लिखते रहो... मेरे यार... कुछ नया हर बार
हमको रहेगा हर पल अगली पोस्ट का इंतजार

Unknown ने कहा…

सारे ऋण तो उतार दिए...लेकिन कैसे उतार पाएंगे ऋण मां-बाप का?

Unknown ने कहा…

सारे ऋण तो उतार दिए कैसे उतारे कोई ऋण मां-बाप का