तुम्हारी पहनी हुई इच्छाओं को मां अक्सर तकता हूं
कांच में और नापता रहता हूं समय,
कि कितना शेष है मुझमें तेरे साथ।
वैसे समय के जिस्म में काफी बदलाव आएं हैं मां
अक्सर छोटा और तंग पड़ जाता है मां
अभी परसों ही तो दोपहर बनकर रिस गया था आंखों से...
रात के अंधरे में भी यूं ही अटक जाता है मां
और घंटों पडा रहता है निस्तेज सा।
सचमुच, कितने बदलाव आएं हैं न मां समय में
इन दिनों मीलों दूर होकर भी
कितना छोटा हो गया है न सब कुछ, मां
सच, मां
आजकल कांच, मैं,
समय और तू अक्सर मिलने लगे हैं....
4 टिप्पणियां:
आपकी कविताएं बहुत बेहतरीन और स्तरीय हैं। लिखते रहिए....
sonu ji aap mere blog par aa kar mujhe sujhav diya, iske liye apka mein shukriya karta hoon..main to bus abhi abhi likhana shuru kiya hai..aaap jese sathiyon ka sath raha to acha likhna sikh jaoonga...main bhi aapki kavitayen hamesha padhta hoon...acha lagta hain
ashish
9867575176
bahut khoob....suyash
sonu,aapki likhi hui yeh kavita ....
sambhalkar rakhi he kitab mein...
....har bar paddhake aankhein bhar aati he.... Maa...!!'
एक टिप्पणी भेजें