बडा सफेद है समय हर आदमी का इन दिनों
और सूख चुका है अतीत हर एक का
कि धडकते नहीं हैं सपने धडकन में
नहीं रही थिरकन झरने सी
झूमता नहीं है वह सावन सा
बहता नहीं है नदी सा....
वैसे और भी उपमाएं हैं
इस लहूलुहान हो चुकी जिंदगी के लिए
कि उसे शामिल किया जाए
वापस वहीं जहां आदमी
अपने होने के अर्थ तलाशता
पूंजी और श्रम के विचारों में पिस रहा है।
वैसे यह भी इत्तेफाक ही है कि
मैं लिख रहा हूं कविता इन दिनों
कवियों की जमात में तुम्हारे लिए पता नहीं क्यों
ये समय जो सफेद पड चुका है,
तैरता है तुम्हारे चेहरे पर
और सूख चुका अतीत
तुम्हारी आंखों के सुर्ख गहरे अंधरे से रिस रहा है
और गलाता जा रहा है
तुम्हारी कोमल मुस्कान
हंसती भी कविता वैसे,
बडे भारी भरकम काम करने के अलावा
इसलिए मैं भी कहता हूं यूं ही तुमसे फटाफट
हंसों जोर से कि छिटक के दूर हो जाए
एक काला लिहाफ बदन से जो
गोंच की तरह चूस रहा है तुम्हार इतिहास
ओह तितलियों सा हो जाए तुम्हारा समय
और मिल जाए तुम्हें रंग बिरंगे फूलों का बाग
शुद्ध कविता हो जाए तुम्हारा मन जो
दिन की तरह महके तुम्हारे चेहरे पर
और फूलों की तरह मुस्कुराए आठों पहर
ऐसा इसिलए कि कविता को सारे कामों के अलावा
इस तरह के काम भी हैं
केवल यही नहीं कि वह
मंचों पर चढकर मालाओं और पुरस्कारों को ढोती
एक दिन मर जाए छद्मता के जहर से या फिर
किसी जिल्लेइलाही कवि के हूकुम से मरती घुटती
निकल ही न पाए संस्क्रति के काले कोठडों से।
बहरहाल, तुम्हारे बहाने ही सही
कविता मेहनतकशों के पसीने में नहा ले एक बार
किसानों के साथ देख ले खेतों में
खुदका मुस्कुराता चेहरा
और हर एक गुलामी को आजाद कर दे
तो शायद सार्थक हो जाए तुम्हारा और मेरा होना
और अर्थ से लबालब हो जाए
इस सफेदझक्क सूखे समय में
मेरी यह लाल सुर्ख कविता।
2 टिप्पणियां:
आपके शब्दों की परिभाषा बेहद कठीन है... सरकार
इसका अनुमान लगाना कांच की बोतल में जिन्दगी का स्वरुप ढुढ़ने जैसा है...
ये धुप और छांव तो जिन्दगी के सच को उजागर करने वाले दो पहलू है...
हालांकि अब तक के जीवन में हमारा जो अनुभव रहा है...
वो आज भी शून्य के बराबर है....
Kavita..
निकल ही न पाए संस्क्रति के काले कोठडों से।
बहरहाल, तुम्हारे बहाने ही सही
कविता मेहनतकशों के पसीने में नहा ले एक बार...
Gazab ki lines hain.. dost..
dil khush ho gaya..
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