22 बरस के थे हबीब साहब, जब अपनी कच्ची पक्की समझ के साथ मुंबई कूच कर गए। आवाज की जादुई खनक और लफ्जों की सफाई पर आकाशवाणी में काम करते रहे। कभी फिल््मों के लिए गीत लिखते रहे, और कभी गाहे-बगाहे मौका मिला तो काम भी करते रहे। यहीं इप्टा से जुड़े और यहीं प्रगतिशील लेखकसंघ से जहां साथियों के साथ गली गली नुक्कड़ नाटक करते और आजादी की लड़ाई में अलख जगाते रहे। 1955 में इंग्लैण्ड और यूरोप गये। उसी दौरान उन्होंने ब्रेख्त के नाटकों पर काम किया। कई नाटकारों के नाटकों पर काम किया और बारीकियों को समझते सीखते रहे।
हबीब साहब चहेरे पर एक निपट देसीपना हमेशा झलकता रहा। देसीपना भी ऐसा कि मानों वही पहचान पाए जिसने गांव की उबड़ खाबड़ गलियों और पगडंडियों से गुजरते जीवन की सौंधी महक को थोड़ा बहुत समझा हो जाना हो। थे तो शहर के लेकिन आजाद होते भारत की ग्रामीण अतंर्रआत्मा को मानों एक कलात्मक तादात्मय के साथ न केवल जीते रहे बल्कि उसी ठेठ गांवठी दुनिया के जीवन संघर्ष को साथ लेकर अपना रचनाशीलता को एक धार देते रहे। धार भी ऐसी कि इस धार में लोकअंचल और लोकजीवन हाथ से हाथ मिलाकर सदा उनके रंगमंचों का रंग बना रहा। लेकिन फिर भी एक बात है जाने क्यों उनके चेहरे की दूधिया सफेदी, उस पर हल्के सुनहरे सफेद अधकचरे काले बाल और मुंह के एक ओर सटी काले रंग की पाइप और साथ चलती एक छड़ी यह सब उन्हें खालिस अंग्रेजी आदमी की भी याद दिलाती थी।
भोपाल में सज्जाद जहीर पर तीन दिनों का एक कार्यक्रम था। उन पर किताब आई थी अपने हिस्से की रोशनाई उनकी बेटी ने लिखी थी। हबीब साहब पहले दिन दिखाई नहीं दिये दूसरे रोज मंच से धुएं के चंद गुबारों को उठता देखकर अचरज में पड़ गया। केदारनाथ सिंह का लंबा भाषण चला। और भाषण के बीच में धुएं के ये छल्ले अचरज में डाल रहे थे। उर्दू के लेखकों का लंबा जत्था मंच पर देखा जा सकता था। बीच में ये धुआं उठता, घूमता और अंनत में विलीन हो जाता। तभी कुछ देर बाद केदारनाथ सिंह के भाषण के बाद एक आवाज ने अपनी खनक के साथ खचाखच भरे हॉल के अधकचरे मौन को तितर-बितर कर दिया। उर्दू के लफ्ज आवाज की उसी खनक के साथ नजाकत से हवा में तैरने लगे। हबीब साहब पाइप को दबाए सज्जाद जहीर के साथ किस्सागोई अंदाज में अपने साथ बिताए दिनों को याद करते़। धुआं उगलता पाइप मंच की गरिमा पर हबीब साहब को चुनौती देता लेकिन अगले ही पल सहजता और प्रगति की कई धाराएं तोड़ता हुआ किसी सूने आकाश में खो जाता। हबीब साहब देर तक बोले, सब कुछ अपने नाटकों से लेकर उस दौर में जो सज्जाद जहीर के साथ रचा।
कुछ देर बाद सब बाहर आ गए। हबीब साहब बेटी नगीन के साथ चलते हैं। हम सब साथ में हैं कुमार अंबुज और कुछ दूसरे साथी उनसे साथ साथ बतियाते हुए चलते हैं। किसी बात पर हंसते हैं। बहुत कुछ पूछने का मन करता है लेकिन सब कुछ लिहाज और शर्म में डूबकर चुप हो जाता है। खाने की मेज पर हबीब साथ सबसे घिरे हुए हैं सामने बैठा हूं मुस्कुराता हूं वे भी मुस्कुराते हैं। खुशी होती है। कई लोगों ने कई कई तरह के सवाल पूछे। कुछ जवाब आए कुछ पर मौन और कुछ पर अनसुनापन।
हबीब साहब के साथ दूसरी मुलाकात रंगमंच पर हुई। समय और समाज के सापेक्ष इस दुनिया को नये आइने में देखा याने आगरा बाजार में, आगरा बाजार एक बिना कथानक और कहानी का नायाब एतिहासिक और एक कलाकार का इस दुनिया को समझने का अनूठा प्रयास। केवल और केवल नजीर अकबराबादी की नज्मों की बना, गाया और गुनगुनाया गया 18 सदी का आगरा बाजार जिसे पाइप पीने वाले एक आदमी ने रंगमंच पर जीवंत कर दिया।
नजीर गालिब के समय के शायर रहे। हबीब साहब ने पहली बार दिल्ली के छात्रों से करवाया। वैसे उनके नाटकों में छत्तीसगढ के ग्रामीण कलाकारों ने अपनी एक खास जगह बनाई। उनके नाटकों में लोकजीवन के इस आधुनिक समाज और दुनिया को बखूबी जीया समझा और इसी चतुराई और चालाकियों को बाजार के पैमाने से तोलकर परत दर परत उघाड़ा।
हबीब साहब हमारे बीच नहीं रहे, उन्हें याद करता हूं, उनका चेहरा दिखाई पडता है।, पहली बार नाटक देखा, आगरा बाजार, रंगमंच पर जीवन, खिलौने वाले, मिठाई वाले, छोले वाले, ढोल और ताशे वाले, सबकुछ बाजार का, बाजार के साथ जीया हुआ। नाटक खत्म होता है आगरा बाजार। हबीब साहब खड़े हैं, हाथ जोडे तालियों की लंबी गड़गड़हाट में खुदको ढूंढ रहे हैं। ऐसा लगता है जीवन के बाजार में खडें है परिस्थितियों से जूझते, संघर्ष को जीते, और आम आदमी के सपने बुनते।
हबीब साहब से आखिरी मुलाकात, एक कलाकार का इस समय के नब्ज पर हाथ। मौन के मुहाने पर जाकर रंगमंच के कोलाहल को देर तक कुरेदने के बाद हबीब साहब याद आते हैं।, 8 जून को 2009 रंगकर्मी ने जीवन के रंगमंच पर अपने पात्र को अभिनीत किया। वे सूने पडे रंगमंचों में समा गए हैं ठीक वैसे ही जैसे मानों धुआं अपने लिए आकाश में समाने के लिए जगह तलाशता है। एक खालीपन है जिसमें तराशने पर आकृति बनती है, सोचने पर कल्पना जगती है और आवाज लगाने पर खामोशी गूंजती है कि रंगमंच खाली है, सूना है, हबीब साहब नहीं रहे।
2 टिप्पणियां:
पढ़ने के पश्चात जुबां पर आया पहला शब्द था 'अद्भुत', असल में ये भी अद्भुत है।
amazing ...truly amazing....
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