लंबे समय से वामपंथ को भारतीय संदर्भ में समझे जाने और उसे प्रैक्टिस में लाए जाने के मसले पर माकर्सवादियों में मतभेद रहा है़ ये ठीक वैसा ही रहा है जैसा नक्सलियों में कट्टर साम्यवादी होने का रहा. नक्सलियों के बड़े नेता का कानू सान्याल और चारू मुजुमदार वामपंथ के नीति नियमों और उसे मानकों को प्रैक्टिस में लाने के तौर तरीको में वैचारिक स्तर पर मतभेद को जीते रहे.
चारू मुजुमदार आजीवन ये मानते रहे कि साम्यवादी होने के मायने देश की संसदीय प्रणाली और वहां के संविधान को न मानकर ही पूरे किये जा सकते हैं और असली क्रांति विचारधारा में रंच मात्र बदलाव किये ही प्राप्त की जा सकती है. चारू मुजुमदार का मानना था कि नक्सली को जेल तोड़कर भाग जाना चाहिए वहीं कानू सान्याल ये मानते रहे कि नक्सली को बाकायदा जमानत देकर रिहा होना चाहिए. और बाकायदा उन्होंने ये किया भी. जाहिर है ये तरीका देश के संविधान, संसदीय प्रणाली और लोकतंत्र में भरोसे का तरीका था जो साम्यवाद के खिलाफ था. इसी तरह दोनों के बीच यही बातें चुनाव को लेकर होती रही और कानू सान्याल ने चारू मुजुमदार के विरोध के बाद भी जंगल सांथाल को चुनाव भी लड़वा दिया. बात साफ समझ मे आती है कि एक ही विचारधारा होने पर भी भारतीय संदभर में उस पर अलग अलग लोगों का मतभेद लगातार बनता बिगड़ता रहा.
हाल ही में माकर्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता प्रकाश करात ने उने मुखपत्र देशाभिमानी ये कह दिया कि उनकी पार्टी को आस्था से कोई गुरेज नहीं है. बस उन्हें तो सांप्रदायिकता से छूत लगती है याने परहेज है. प्रकाश करात ने इस बात को मौजूदा भारतीय संदर्भ में माना. आमतौर पर धर्म को लेकर चिरकाल से अफीम मानने वाली वामपंथी विचारधारा के आस्थावान अनुयायी और देश की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी के कर्णधार प्रकाश करात को यह बात भारतीय संदर्भ में इसलिए दोहराने की जरूरत पड़ गई.क्योंकि उनकी पार्टी के मनोज नाम के एक कार्यकर्ता ने जो माकर्सवादी दर्शन में मानवजाति के उत्पादन संबंधों के इतिहास का एक मशीनी घटक हैं और भारतीय होने के मुताबिक एक कैथोलिक क्रिश्चयन हैं ने पार्टी छोड़ दी. उनका पार्टी छोड़ने के कारण हाल ही में पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए जारी किये गए वे दिशा निर्देश थे जिसमें कार्यकर्ताओं को धार्मिक अनुष्ठानों को त्यागने के लिए कहा .याने कार्यकर्ताओं से कहा गया कि वे ज्यादा अफीमची न हों और मंदिर, मसि्जद, चर्च और गुरूद्वारों के ज्यादा चक्कर न लगाएं. बहरहाल, मनोज भाई को ये बात रास नहीं आई और उन्होंने युरोपियन संदर्भ में ग्रहण किये गए वामपंथ को छोड़कर कैथोलिक रहना ज्यादा बेहतर समझा. लेकिन मनोज भाई के पार्टी छोड़ते ही करात साहब को अपनी गलती समझ में आई और उन्होंने भारतीय संदर्भ में आस्था और सांप्रदायिकता में फर्क बताकर सफाई दी ताकि तीसरा मोर्चा बनाकर बहन जी को प्रधानमंत्री बनाने का सपना दिखाने वाली वामपंथी पार्टियों में कार्यकर्ताओं की फौज पिछली गली से नहीं निकलने लगे. और पार्टी हाशिये पर न आ जाए.
शायद ये पहला मौका होगा कि देश की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी के महासचिव ने गाहे बगाहे देर से ही आस्था नाम की चिड़िया के अस्तित्व पर बात तो की जिसे माकर्सवादी दर्शन हवा हवाई मानता था जाहिर है सत्ता को बचाने के लिए वामपंथियों में विचारधारा के मतभेद की खाई भारतीय संदर्भ में लगातार बढ़ती ही रही है?
धर्म को अफीम मानने वाली वामपंथी पार्टियां जिस पिश्चम बंगाल से अपनी माकर्सवादी विचारधारा और दर्शन की हुंकार भरती है वहां वह दुर्गा उत्सव में सजने वाले दुर्गा पंडालों पर अपने लालझंडो और बैनरों की भरमार खड़ी कर देती है. और तो और ऐसे दुर्गा पंडालों की व्यवस्था खुद वामपंथी सरकार को ही विचारधारा को साइड में रखकर और आस्था को गले लगाकर करना पड़ती हैं. जानती है कि नहीं करेंगी तो आस्था का ये अपमान सत्ता से इतनी दूर फैकेगा कि पता नहीं दुबारा सत्ता मिले ही नहीं. सबसे बड़ी बात तो तब होती है जब खुद पशि्चम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य इन पंडालों में चीफ गेस्ट के रूप में मौजूद होते हैं.
हालांकि ये पहला मौका नहीं है कि भारतीय संदर्भ में धर्म और आस्था को लेकर अपने लचीले होने की बात को प्रकाश करात लिखकर या सबे बीच खड़े होकर कहना पड़ा हो. कार्यकर्ता भारत के हैं युरोप के नहीं, उन्हें पूजा पाठ और पद्धति से रोकना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कुठाराघात है. ये प्रकाश करात पहले से ही जानते रहे हैं. और चुनाव जीतने सत्ता में आने और विचारधारा की प्रैक्टिस के लिए भारत में उन्हें आस्था को मान्यता तो क्या उसे चरण भी धोने पड़ेंगे.
शायद तभी आज से कुछ साल पहले बिना किसी से डरे, विचारधारा से अलग बंगाल के ही वामपंथी सरकार के परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने वेल्लुर मठ में जाकर न केवल पूजा अर्चना की बल्कि ये भी कह दिया कि पहले मैं ब्राम्हण हूं, फिर भारतीय हूँ और फिर कम्यूनिस्ट. उसमें भी सबसे बड़ी बात ये हुई कि इन्हीं प्रकाश करात साहब ने सुभाष चक्रवर्ती से एक शब्द नहीं कहा.
कुल मिलाकर सवाल फिर यही है कि यदि सत्ता तक पहुंचने के लिए भारतीय संदर्भ में विचारधारा से थोड़ी बहुत मांडोली हो ही रही है तो फिर एक बैठक करके ऐसी गाइडलाइन जारी करने की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए कि मनोज जैसे कार्यकर्ताओं का दिमाग घूम जाए , उनकी आस्था को चोट पहुंचे और वे पार्टी छोड़ दें.
खैर, इन तमाम बातों से एक बात तो साफ हो जाती है वामपंथी पार्टियों को गोदडी ओढ़कर घी पीने से अच्छा है कि अपनी कथनी करनी एक कर ले और ये समझ ले कि धर्म और आस्था को उन्हें आज से नहीं बहुत पहले से ही भारतीय संदर्भ में देखना शुरू कर देना चाहिए था जिससे आज पार्टी का विस्तार ज्यादा हो जाता और अपनी इस विचारधारा को पार्टी भारतीय जनता के लिए कारगार बना पाती.
वैसे एक बात है कि चाहे अनचाहे ही सही प्रकाश करात और देश की दूसरी वामपंथी पार्टियां कम से इस बात को मानने को तो तैयार हुई हैं वामपंथ को भारतीय संदर्भो में ही समझे जाने और प्रैक्टिस में लाए जाने की जरूरत है. और उसमें भी खासे संशोधनों की जरूरत हैं. वरना आज तक लकीर के फकीर बनें रहने का ही नतीजा है कि आज भी पढ़ा लिखा युवा राजनीति में कांग्रेस,भाजपा, बसपा और सपा तो समझता है पर लेफ्ट और वामपंथ क्या बला है उसकी समझ में नहीं आता.
बहरहाल, प्रकाश जी आस्था को देर से ही सही दुरूस्त होकर अपना ही रहे हैं तो एक बात और है कि आस्था को अब समझने की कोशिश मत कीजिए. बस जो आपका माकर्सवाद के प्रति बौदि्धक और प्रेमपूर्ण लगाव है वो भारत और यहां के जनमानस की आस्था मे मिला दीजिए साथ ही भारतीय संदर्भो में संप्रदाय को भूल जाइए आप आस्था को समझ जाएंगे और ये भी समझ में आ जाएगा कि दोगले, धोखेबाज चीन के प्रति मौन हो जाना भी एक आस्था ही है.
4 टिप्पणियां:
आपने बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है और लेख बिलकुल बेबाक है. बधाइयां ऐसा लेखन जारी रखें
सीधी सी बात है की धर्म लाखों वर्ष पुराना है आस्था अनादि काल से चली आ रही है. और वाम पन्थ विचारधारा का जन्म कुछ ही सदियों पहले हुआ है. . इस लिए आस्था और धर्म को बेमानी कहना आकाश में थूकने के सिवा कुछ भी नहीं .
जिन देशों में साम्यवाद या वामपंथी विचारधारा का जन्म हुआ था वहां तो आज के वैश्विक प्रतियोगी एवं सहयोगी वातावरण में साम्यवादी या वामपंथी विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तना आ गया है पर हमारे देश के साम्यवादी अभी भी इस विचार धारा का पार्थिव शरीर लेकर दिवास्वप्न देखने में लगे हैं.
इस देश या किसी भी देश में आस्था एक अटूट विचार एवं जीवन पद्धति होती है उसे किसी भी तरह से मिटाया नहीं जा सकता यह अवश्य है की समयोचित संशोधन किये जा सजते हैं परन्तु वह भी सरल नहीं है . भारत में लगभग ६०० वर्षों तक मुगलों एवं अंग्रेजों का शासन रहा लेकिन कोई भी शासक यहाँ के हिन्दू धर्म एवं उसके प्रति जन मानस की आस्था को मिटा नहीं पाया तो दम तोड़ते वामपंथियों की क्या बिसात. यह कटु सत्य जितनी जल्दी इनको समझ में आ जाये उतना ही इनका भला होगा. चलो शुरुआत तो हुई . धर्म और आस्था के प्रति समर्पित होना सांप्रदायिक होना नहीं होता यह शाश्वत सत्य इन्हें शीघ्र ही समझ लेना चाहिए और यह भी समझ लेना चाहिए क़ि धर्म और आस्था मनुष्य के भीतर की अनुभूति है और राष्ट्र एवं राष्ट्रभक्ति उसका गौरव.
अच्छा है..लिखते हैं अविराम
ye sab apun ko samajh me nahi ata.....re
huuh.....this 'Subject & your highly pur Hindi Language' both are not my cup of tea.
Congratulation !!!
एक टिप्पणी भेजें