संशय के आवरण में घिरा समय है ये
प्रश्नों की धुंध में घूमती आ रही है पृथ्वी
सट्टा है सबकुछ बम्हांड से लेकर
नींद से आंखें खोलना तक ..
प्रश्नों की पूंछ पर लटकी दुनिया के बारे में
कुछ भी कहना संशय हटाकर कहने जितना ही कठिन है
फिर यदि प्रश्न नचिकेता के हों तो
जीना मुश्किल भी कर देते हैं
उत्तरों के नहीं आने तक ...
जैसे अंधा हो गया था संजय भी
रणांगन में एक अंधे को जीवन मृत्यु के प्रश्नों का
विराट उत्सव दिखाते-दिखाते..
कोई नहीं जानता कि किस ग्वाले का लडका
कृष्ण होगा और कौन ब्राम्हण सुदामा
जंगल में ही मिले थे राम और शबरी...
वैसे कुछ प्रश्न किसी काम के नहीं होते
जैसे हम कौन हैं, मरने के बाद क्या होगा हमारा
सच, सब कुछ जुगाली ही तो थे बुद्ध के लिए
कि कुछ भी जान लो भोगना ही है
दु:ख, जरा, रोग और मृत्यु
धरा रह जाता है ज्ञान प्रश्नों के साथ...
लेकिन प्रश्नों से परे
गोंच की तरह ही होता है संशय
चूसता रहता है जीवन
पैदा करता रहता है मन के महावीर में
गोशालख संडांध के साथ कि
जब सब कुछ निश्चित है दुनिया में
तो कौन गोशालख, कौन महावीर
कौन आनंद और कौन बुद्ध?
सच, तारीखों में इतिहास जीने वाली सभ्यता
एक ग्रह के थोडा बहुत ज्यादा या कम घूमने से
कैसे तय करती है दुनिया का देश, काल
और परिस्थिति.. ?
सोचता हूं उफ.. बाल-बाल निकला मैं
कि पैदा हुआ ९ जनवरी १९८४ को
भोपाल की बजाय भुसावल में
और सिक्ख की जगह हिदू के घर में..
पृथ्वी के लटके रहकर
घूमते रहने की तरह ही है जीवन और मृत्यु का सट्टा
लोकतंत्र किसी के बाप की जागीर नहीं है
कि मरना भी मर्जी से हो...
विस्फोट, दुर्घटना, प्राकृतिक आपदा,
फ्लू-वू, या फिर अटैक-फटैक
कुछ भी चॉइस नहीं है मौत की
जैसे पैदा होने की नहीं थी..
गनीमत है कि १ जनवरी १९८४ से अब तक
ठीक-ठीक घूमी है पृथ्वी
मुझे पक्का भरोसा है
आकाश और धरती के
कभी नहीं मिलने की संभावनाओं की तरह ही
कि मैं मरूंगा अपनी मौत
और मौत के समय भगतसिंह या फिर
कामू के अजनबी की तरह
मुझे इस जीवन और मौत से कोई शिकायत नहीं होगी.
6 टिप्पणियां:
aisa tum hi likh sakte ho ...
कुछ भी चॉइस नहीं है मौत की
जैसे पैदा होने की नहीं थी.. be-misaal...
bahoot achha dost...bahoot gaharai se likha hai...jiwan or maut, kisi ki sagi nahi...( babulal dada, bachpan se hi mujhe apne cycle rikshaw par school lekar jate rahe...hum sabhi bhai unhi ke rikshaw me school jate the...raste main jab bhi main unhe dekhta....jhuki kamar se rikhsa dhakate hue milte..unse milta or hamesha kharch ke lea kuchh paise deta...harbar sardiyan aane se pahale, ghar se unhe kambal or garam kapde diye jate the...kal achanak kaam wali bai se puchha dada aajkal dikhai nahi de rahe hai...to usne kaha ...dada chal base...(dada jab bhi milte to yahi kahete, ki aap ke kambal se meri thand nikal gai)...han, dada ki jhurrion main maine apna bachpan dekha hai...gurudware ja kar unke liye ardas kar aaya hun....sach yahi hai ki jo aaj hai wo shayad kal na hoga.....
"पृथ्वी के लटके रहकर
घूमते रहने की तरह ही है जीवन और मृत्यु का सट्टा......"
अति सुन्दर, संवेदनशील एवं प्रासंगिक...जीवन के अंदर और बाहर के रहस्यों को जाने की अभिप्सा....बहुत सुन्दर...
Aap itna deep kaise soch sakte ho...I just amaze !
...this one was just mind blowing creation of u.
Chees !!! & all d best !
bahut khoob..Please visit my blog..
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