कविता संग्रह - "संभावना में बची आस्था"
कवि - कृष्ण कुमार मिश्र
प्रकाशन- प्रकाशन संस्थान, दिल्ली.
पुस्तक समीक्षा- सोनू उपाध्याय
कविता को जिंदगी और चरित्र के लिए रिफाइनरी मानने वाले कवि कुमार मिश्र के लिए कविता जीवन के घटाटोप अंधेरे के बीच रोशनी की नई संभावनाओं के साथ पैदा होती है. जिंदगी को गतिमय बनाने के लिए मिलने वाली उर्जा, शक्ति और स्फूर्ति को कविता का केंद्र मानने वाले कुमार मिश्र इस बात के लिए पूरा जोर देते हैं कि कविता एक बेहतर मनुष्य की संभावनाओं की तलाश है और इसलिए इसे जरूर पढा जाना चाहिए. बहरहाल़, गांव की सूनी लेकिन हरी-भरी पगडंडियों से भीड-भाड भरी, कॉक्रिट के जंगलों से घिरी सडकों पर लगातार सिकुडती जा रही जिंदगी से दो-दो हाथ करते कवि मिश्र अपनी कविताओं के जरिये एक बेहतर मनुष्य और उसके बने रहने की बेहतर संभावनाओं की तलाश की यात्रा पर निकल पडे दिखाई पडते हैं. शायद यही वजह है कि उनके कविता संग्रह ”संभावना में बची आस्था”” की सारी कविताएं जिंदगी के हर उत्सव, पर्व, सुख-दुख और संवेदनाओं को सहजता के साथ स्वीकार कर उसमें एक बेहतर कल की संभावनाओं को तलाशती हुई एक नई दुनिया के रचाव के लिए कार्यरत दिखाई पडती है.महानगरीय जीवन की भाग दौड में अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए हाथ पैर मार रहे आदमी के लिए आज के दौर में जहां सांस लेने तक की फुरसत नहीं, जहां मानवीय संबंधों पर बाजारू मोटी परत जमती जा रही है, आपसी भावनात्मक खालीपन की दीमक चट करती जा रही है, ऐसे में घोर निराशा से से भरे वातावरण के बीच कुमार मिश्र कविताओं के जरिये उम्मीद की नई किरण को जिंदगी की शानदार संभावनाओं के साथ तलाशते हैं. कमाल की बात है यह है कि उनकी यह संभावना कल्पना के किसी तीसरे लोक से नहीं बल्कि इसी समय की असंभावनाओं से जूझकर उसमें छिपी संभावना की आस्था की खोज के साथ पैदा होती है. तभी तो वे कहते हैं-
इसी भीड से गुजरना है
धक्का मुक्की करना है
गिरना है उठना है
दौडना है धकियाना है
तेजी से दौडना है
पर ओझल नहीं होने देना है
उठाना है सिर
भीड से उपर नहीं
आम नहीं खास
फिर भी निर्विकार
उडना पंख पसार..
दुनिया को मंडी और बडे बाजार में तब्दिल कर मनुष्य को भी एक उत्पाद बनाकर बेचने की प्रवृतियों के साथ उपजी तमाम विसंगतियों में टूटते परिवार, गुम होते समाज और आपसी संबंधों में आए सूखेपन को लेकर अपनी चिंता जाहिर करते कुमार मिश्र की कविताएं महज एक ही तरह की त्रासदियों के बीच आकर ठहरती नहीं बल्कि उनका फलक बहुत ही व्यापक है. संग्रह की पानी, माचिस, खालीपन पत्थर, पिता बहुत उदास हैं, मेरा गांव, बडा हो रहा है बच्चा, घर में हो रही है सत्यनारायण कथा और माध्यम जैसी कविताएं जहां एक ओर इस समय की सामाजिक त्रासदियों को लेकर चिंतित है वहीं यह जीवन की सहजता, सरलता, सौंदर्य और मनुष्य के भीतर लगातार गलती जा रही संवेदशीलता और प्रेम को लेकर भी दुखी है, लेकिन फिर कहना होगा कुमार मिश्रा पिछले कुछ सालों में मनुष्य की जिंदगी के बीच आई एक अजीब सी काली छाया को लेकर एक भयानक काली रात को लेकर निराश, हताश और टूटते नहीं है बल्कि वे तो वहीं से एक ऐसी संभावना के सूरज का रास्ता तलाशते हैं जिसके उदित होते ही बहुत कुछ बदल जाएगा जैसी आशा जीवंत हो उठती है, शायद तभी उनके लिए इति श्री का मतलब वह नहीं है जिसके लिए वह लिखा जाता है इसलिए वे छाती ठोंककर कहते हैं
इति श्री
अंत में बोला जाने वाला एक शब्द भर नहीं है
यह नई शुरूआत के पहले
मंच पर गिरता हुआ परदा है
यह सुबह के पहले की तैयारी है
बहुत बहुत आशाएं जगाता हुआ
इसलिए खोल दो खिडकियां
शाम गहराने लगी है.
जाहिर है कुमार मिश्र इस समय और जीवन के बीच गहराती जा रही तमाम असंभावनाओं के बीच एक ऐसी संभावना के कवि है जिसके लिए कविताएं महज चंद शब्दों के अर्थ में छिपी संभावना नहीं है बल्कि वह तो उसके पार निकल जाने की वह ताकत और जिद है जहां उनके लिए एक नया सवेरा हर जगह, हर तरफ अपना उजियारा फैलाएगा. जैसा की पहले कहा कुमार मिश्र का फलक बहुत व्यापक है शायद इसलिए भी कि वे पत्रकारिता जगत से आते हैं लिहाजा जिंदगी उनके लिए कविता के हर उस आयाम से आती है जहां मनुष्यता अपने होने के अर्थ और संभावनाएं तलाशती है.
तीन गोलियां, रूद्रपुर का रावण, एक नक्सली का हलफिया बयान अथ, मध्या-1 , मध्या-2 , भवदीय, तकिया और परशू जैसी ये वो कविताएं हैं जो कुमार मिश्र की पत्रकारिता के बीच पल रही संभावनाओं की खेप है, जहां वे राजनीतिक विद्रुपताओं के बीच नष्ट हो रहे समाज, छिन्न भिन्न की जा रही संस्कृति और सत्ता की लालसा के बीच पिसा रहे आमजनों के दुखों, संवेदनाओं को सेहजने और एक निरपेक्षता के साथ न्याय की संभावनाओं को तलाशते हैं. कुमार मिश्र की यह संभावना सूरज की उन किरणों की तरह है जिसकी रोशनी हर अंधेरे, महीन से महीन कोने और सूक्ष्म से सूक्ष्म कण तक भी पहुंचती है.
जाहिर है कुमार मिश्र इस समय और जीवन के बीच गहराती जा रही तमाम असंभावनाओं के बीच एक ऐसी संभावना के कवि है जिसके लिए कविताएं महज चंद शब्दों के अर्थ में छिपी संभावना नहीं है बल्कि वह तो उसके पार निकल जाने की वह ताकत और जिद है जहां उनके लिए एक नया सवेरा हर जगह, हर तरफ अपना उजियारा फैलाएगा. जैसा की पहले कहा कुमार मिश्र का फलक बहुत व्यापक है शायद इसलिए भी कि वे पत्रकारिता जगत से आते हैं लिहाजा जिंदगी उनके लिए कविता के हर उस आयाम से आती है जहां मनुष्यता अपने होने के अर्थ और संभावनाएं तलाशती है.
तीन गोलियां, रूद्रपुर का रावण, एक नक्सली का हलफिया बयान अथ, मध्या-1 , मध्या-2 , भवदीय, तकिया और परशू जैसी ये वो कविताएं हैं जो कुमार मिश्र की पत्रकारिता के बीच पल रही संभावनाओं की खेप है, जहां वे राजनीतिक विद्रुपताओं के बीच नष्ट हो रहे समाज, छिन्न भिन्न की जा रही संस्कृति और सत्ता की लालसा के बीच पिसा रहे आमजनों के दुखों, संवेदनाओं को सेहजने और एक निरपेक्षता के साथ न्याय की संभावनाओं को तलाशते हैं. कुमार मिश्र की यह संभावना सूरज की उन किरणों की तरह है जिसकी रोशनी हर अंधेरे, महीन से महीन कोने और सूक्ष्म से सूक्ष्म कण तक भी पहुंचती है.
कई बार जब वे
गाडी में बिठाकर मुझे
कचहरी ले जाने चाहते
गाडी में बिठाकर मुझे
कचहरी ले जाने चाहते
गाडी चलने से मना कर देती
मुझे गाडी में बिठाकर
वे धक्के लगाते
पसीना पोंछते वे हांफते
आह ! वे दिन मेरे जीवन के
सबसे सुखमय दिन थे.
कविताओं को पढने के लिए एक सरल विनम्र आग्रह करने वाले कुमार मिश्र के लिए कविताएं, जैसा की पहले कहा, संभावनाओं की उर्वरा भूमि है और ऐसी उर्वरा है जहां इति श्री के शुभारंभ करने वाले बीज बोए गए हैं और उनके मुताबिक वहां संभावनाओं की आस्था के पौधे लहलहाने ही लहलहाने हैं. इसलिए मुझे लगता है कि वे तीसरी गोली एक प्रश्न चिन्ह के साथ बचाए हुए हैं, और कुछ कहो, बात करो चुप न रहो कि संभावना के साथ बैठे हैं
जहां बची है केवल
तमाम हो सकने वाली चीजों
घटनाओं की संभावना
क्योंकि बची रहेगी हमेशा
कुछ कुछ होने की आशा
जब सब कुछ हो जाता है खत्म
फिर भी बची रहती है संभावना की आस्था.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें