कठिन होगा
तब और भी ज्यादा
जब जिंदगी की भीड
में होंगे हम
और जीना होगा हमें
अपनी जिंदगी.
हर वक्त होगी
जद्दोजहद
कि लादी जाएंगी
जिंदगी पर जिंदगियां
और दो सांस भी न जिया जा सकेगा
और दो सांस भी न जिया जा सकेगा
खुदके लिए पहाड में
से तिनका.
अपने ही पेड के नीचे
हम ढूंढेंगे छाया
या तलाशेंगे अपने ही
कपडों में सही माप अपना.
हो सकता है यह भी कि
शीशे के सामने खडे
होकर
ढूंढेंगे खुदको, या
देखेंगे केवल एक बार
हां बस एक बार खुदको
खुदके लिए और मुस्कुराएंगे.
बिला वजह होगा
सबकुछ
सिवाय भीड के...
भीड में हम चेहरा
होंगे या धड का कोई हिस्सा
अमूमन हम होंगे
पर अपने नहीं
पर अपने नहीं
भीड के... !!!
9 टिप्पणियां:
wonderful !!!
kavita me jis bat ki taraf ishara kiya gaya hai, wo hona shuru ho chuka hai...isthiti aur bhayavah hoti jayegi agar samvedanon ka dam hum isi tarah ghontate rahe...
कविता के बारे में अच्छा बुरा तो कुछ नहीं, हां पंक्तियाँ अच्छी है. लेकिन ऐसा लगा कि पहले भी इसे पढ़ चूका हूँ. तुम्हारे शुरूआती दौर के बिम्ब ऐसे ही होते थे. यह अच्छा लगा कि काफी परिपक्वता के बाद भी तुमने सरल लिखना चुना. बहुत सरलता से लिखा है इस बार तुमने, फिर भी मेंहनत की है इस पर. और यही मस्श्कत मासूमियत को खत्म कर देती है. बड़ी बात तो यह है कि बूढ़ा होने के बाद भी बच्चों की तरह लिखा जाए. एक लाइन जो मुझे अच्छी लगी ... अपने ही पेड के नीचे हम ढूंढेंगे छाया... नवीन
अच्छी रचना है सोनू जी।
अच्छी पंक्तियाँ हैं सोनू जी।
अच्छी पंक्तियाँ हैं सोनू जी।
कविता में अच्छा बुरा तो कुछ भी नहीं कहूंगा. लेकिन पंक्तियाँ अच्छी है लेकिन तुम्हारे शुरूआती दौर की कविताओं की याद दिलाती है. पहले तुम्हारी कविताओं के बिम्ब ऐसे ही हुआ करते थे. यह अच्छा लगा के इतनी परिपक्वता के बाद इस बार तुमने थोड़ी सरलता को चुना, लेकिन फिर भी कविता पर काफी महनत की तुमने. इस मशक्कत की वजह से ही उसकी मासूमियत खत्म हो जाती है. होना तो यह चाहिए की बूढा होने के बाद भी हम बच्चों की तरह लिख पाए. पर ऐसा हो तो सही एक बार. नवीन
उम्दा उम्दा उम्दा उम्दा उम्दा
उम्दा उम्दा उम्दा
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