मंगलवार, 15 जून 2021

यह एक फोटो में चरित्र और चंद लाइनों में कद बताने वाला काल है.


          सोशल मीडिया पर समाज, राजनीति और संस्कृति में घुसपैठ करती रही है लेकिन पहली बार ट्रोलर्स                    साहित्य में घुसपैठ कर गए. (फोटो: Pixabay) 

 

"दुनिया के साथ समस्या ये है कि बुद्धिमान लोग संदेह से भरे हैं जबकि मूर्ख आत्मविश्वास से" - चार्ल्स बुकोवस्की  


यह ट्रोलिंग काल है। "मजे लेना" को साकार करने वाला वक्त। पहले मजाक उड़कर हवा में घुलता था अब वह मीम्स बन जाता है। दीवारों से झांकता है और वॉल पर नाचता है। किसी के फोन में घुसकर साझा हो जाता है, तो किसी अखलाक को अफवाह की बिनाह पर हलाक कर जाता है। 

यह एक फोटो में चरित्र और चंद लाइनों में कद बताने वाला काल है। जो नहीं था उसे दिखाने की कला का काल है, जो कभी नहीं कहा गया उसके प्रचार का काल है।  यह गंभीरता की हत्या और हत्यारों की  स्थापना का काल है।  ट्रोलिंग के इस काल में साहित्य का  स्वागत है।  



आप इस समय को एंजॉय कीजिए और तब तक कीजिए जब तक की पुरखों पर लिए गए मजे के पोस्टर दरो दीवार पर चस्पां ना हो जाए, किसी अंधेरे में कविता पर, किसी मुक्तिबोध को टॉर्च थमाकर मीम्स में लपेट ना दिया जाए और किसी तुलसी, मीर के लिखे की सस्ती पैरोड़ी ना बांट दी जाए।      


आइए एक ऐसे ही समय में प्रवेश करते हैं,  

जहां "ट्रोल एंड मीम्स प्रोडक्शन" के स्लॉट में हिंदी का एक कवि अपनी कहानी की चंद पंक्तियों के साथ फंस गया है, और वह तब तक मीम्स में मिमियाकर ट्रोलाया जाता रहेगा जब तक कि उसकी कहानी कविता नहीं बन जाती और वह अपनी कविताओं के प्रचार के दुस्साहसी कदम के लिए भारतीय दंड सहिंता की किसी धारा में अपराधी घोषित नहीं कर दिया जाता।

कवि कहता है..!
बुनी हुई रस्सी को घुमाएं उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशे को
समेट कर लिखता है !


भवानी प्रसाद मिश्र हैं नहीं, वरना इस तरह बोलने पर ट्रोल हो जाते- बशर्ते निगाह में आ जाते...

'कविता किसी विचारधारा की अभिव्यक्ति का उपकरण नहीं है- बल्कि वह अभिव्यक्ति का माध्यम तभी तक है जब तक हम उसके माध्यम से किसी पूर्वनिर्धारित सत्य को कहना चाहते हैं। एक कवि के रूप में मेरे पास कुछ भी पूर्वनिर्धारित नहीं है। कविता मेरे तई अभिव्यक्ति नहीं, अनुभव का माध्यम है।' इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनकी सर्वोच्च आस्था शब्द में हो।


फिलहाल 

कवि को "बेवकूफ" (शब्द जिसे लिखना ठीक नहीं) घोषित कर दिया गया है, क्योंकि वह अपने समय से बाहर की रचनाएं लिख रहा था। उसकी आस्था शब्दों में थी। वह बचे हुए था अपनी तमाम असुविधाओं में एक बड़ी सुविधा के बीच जिसमें उसने केवल लिखना तय किया था, अपनी मर्जी से दूसरों की असहमतियों के बीच, स्वयं की सहमति में। 

कवि अपराधी है। वह मनमोहन काल में भी लिखता रहा और मोदी काल में भी केवल और केवल लिखता रहा क्योंकि वह केवल लिखना जानता था। कवि अपराधी था क्योंकि उसने यह तय किया था कि उसे क्या लिखना है और क्या नहीं।

इतिहास की अदालत में कवि/लेखक का मुकदमा सालों से पेंडिंग रहेगा इन सवालों के साथ, जो उसे लिखने की दुनिया में अपराधी घोषित करते थे।


पहला- क्या रचना में अपने समय को दर्ज ना करना अपराध है?
दूसरा- दुनिया के सर्वाधिक अभिव्यक्त हो रहे समय में अपनी ही अभिव्यक्ति का प्रचार गुनाह है?  


गौरतलब है कि अपराधी होने की संभावना के लिए कवि का आधिकारिक बयान प्रिंट नहीं हो पाया है। ट्रोलिंग के उस्ताद कहते हैं- वह दिखने में ही पूंजीपति है लिहाजा अपनी खूबसूरत पीआर, पीए और इवेंट ऑर्गेनाइजर्स के साथ सुदूर देशों तक कविता, कहानी के प्रचार-प्रसार के लिए व्यस्त है। 


कवि को दिया जा रहा मश्वरा गजब का है. वह इस अजब-गजब सदी में ही दिया जा सकता है. कवि की घटिया हरकत पर पूरे हिंदी साहित्य को एक सबक गांठ बांधने के लिए कहा जा रहा है

ताकि सनद् रहे 

हिंदी कवि/लेखक में सेलिब्रिटी होने की चाहत रखता है तो वह ट्रोल की आदत भी डाल ही ले, जैसे  खाए-पिए अघाए हॉलीवुुड से लेकर बॉलीवुड सेलिब्रिटी करते हैं। 

कवि/लेखक स्टैंड अप कॉमेडियन हो जाएं और इससे पहले कि दूसरे उसकी कविताओं की मजे ले वह खुद ही उन संवेदनाओं, भावनाओं, प्रेम और सहानुभूति को चुटकुला बनाकर वायरल कर दे.  वह इतना वायरल हो जाए कि लिखना ही भूल जाए। 

कवि और लेखक कम्बख्त इतना ढीठ हो जाए और इतनी मोटी चमड़ी का आदमी हो जाए की वह खुदके प्रति भी संवदेनशील ना रहे।   


लेकिन कवि कहता है 
बोलने से पहले
बुद्धिमान लोगों की तरह बोलो
नहीं तो ऐसा बोलो
जिससे आभास हो कि तुम बुद्धिमान हो

बोलने से पहले
उन तलवारों के बारे में सोचो
जो जीभों को लहर-लहर चिढ़ाती हैं

यह भी सोचो
कि कर्णप्रिय सन्नाटे में तुम्हारी ख़राश
किसी को बेचैन कर सकती है
कई संसारों में सिर्फ़ एक बात से आ जाता है भूडोल

खुलो मत 
लेकिन खुलकर बोलो
अपने बोलों को इस तरह खोलो
कि वह उसमें समा जाए
वह तुममें समाएगा तो तुम बच जाओगे

बोलने से पहले ख़ूब सोचो
फिर भी बोल दिया तो भिड़ जाओ बिंदास
तलवारें टूट जाएंगी

बचा-खुचा शेष यह है कि जब टिक-टॉक वीडियो पर हंसा जा सकता है, शर्मा जी के लाफ्ट्टर शो में फूहड़, अश्लील चुटकुलों पर ठहाका लगाया जा सकता है, कSSSकSS...पSSSप हाSSSहा से सस्ती लोकप्रियता मिल सकती है तो फिर हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ बड़े कवियों का माल किसकी रस्ता देख रहा है.!



फिलहाल


भवानी प्रसाद मिश्र से माफी के साथ 

ना निरापद कोई नहीं है
न तुम, न मैं न वे
न वे, न तुम, न मैं
सबके पीछे बंधी है दुम
शेयर, लाइक्स से प्रसिद्धि की...
 (आसक्ति की)

(नोट:  आप चाहें तो ट्रोलिंग काल को कॉल भी समझ सकते हैं क्योंकि अब सबकुछ आपकी समझ पर निर्भर करता है.) 


(लेख अमर उजाला में प्रकाशित. लेखक वहां मजदूरी करते हैं. यहां क्लिक मारें- https://www.amarujala.com/columns/blog/hindi-sahitya-and-hindi-poem-poet-trolling-memes-on-social-media)

गुरुवार, 10 जून 2021

यह सब आंकड़े हैं. दुख की गिनतियां जिन्हें कोई नहीं गिन पाएगा.!

 
                     हरदा के स्टेशन की एक शाम: तस्वीर बाकायदा मेरा फोन. 

9 मई बीत रही है. आज कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा 4 हज़ार से पार है. मेरे पास सुबह पहुंचा आंकड़ों का अविश्वसनीय नोटिफिकेशन. यानी गिनती ठीक नहीं. यह रोज़ाना हो रहीं मृत्यु में सबसे ज्यादा है. सूचना है कि कोविड संक्रमित तो कम हो रहे हैं लेकिन मरने वालों की संख्या नहीं. लेकिन 4 लाख केस रोज़ होना संकेत है कि महामारी की रफ़्तार बेकाबू है और आने वाले कई 24 घंटे डराने वाले होंगे.

बहरहाल, बीते दो से 3 दिन में केरल डरा रहा है जबकि यूपी सहित राज्यों के गांव दहशत दे रहे हैं. राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली  सहित महाराष्ट्र की कहानियां आपके हिस्से आई होंगी.

सच कहूं तो इन आंकड़ों और तथ्यों का साझाकरण किस विश्लेषण के साथ बताया जाए जबकि आसन्न संकट मृत्यु ही बांट रहा है और सरकार असहाय नजर आ रही हो. वैसे कड़वा सच कहूं तो मुझे सरकार नज़र नहीं आ रही. वह डिजिटल थी और उसका भास मात्र होता रहा. आभास को भास भासता है. यह वर्चुअल की रियल्टी है.

फिलहाल मैं इन आंकड़ों से खुदको डरने नहीं देता. सुबह रोज उठकर यही देखता हूं. मौत की खबरें सुनता हूं. आज गली में पड़ोस की दादी चलीं गईं उन्हें नमन किया और मातृत्व दिवस पर रोती हुई मां से एक दूर की मौसी के नहीं रहने की खबर सुनी जिसके हम बेहद करीब थे.

उधर भोपाल में बहन दूर के रिश्ते में 38 साल के भांजे की अचानक मौत को स्वीकार नहीं कर पा रही और रोज रात को उसे बचा लेने के छूटे हुए जतन साझा करती है. भाभी के भाई 6 दिन से एडमिट हैं उन्हें देखने जाने की बात चल रही है, पत्नी दुःखी है क्योंकि इकलौता भाई एडमिट है, काकी की असमय विदा उसके मन पर शोक बनकर छा गई है.

यह सब आंकड़े हैं. दुख की गिनतियां जिन्हें कोई नहीं गिन पाएगा.
फिर महामारियां भी मदद, आमद की खबरें और मृत्यु के गिरते बढ़ते आंकड़े कहां गिनती है..!

सोचता हूं आपदा की विस्मृति समाधान होती तो.

मानुष मन ठहरा जीवन जिधर दिखा वहीं संसार की बेल चढ़ा दी. एक अग्रज लेखक कहते हैं माहमारी ने मृत्यु की गरिमा छीन ली. मैं कहता हूं महामारी जब जाएगी तो जीवन की कीमत बता जाएगी.

सांझ की बेला चढ़ गई है.
आज मातृत्व दिवस था. मां दिया बत्ती कर सब्जी काट रही है.
मैं सुबह सुबह फिर मृत्यु के आंकड़े देखूंगा
चाय पीते हुए..!


स्मृतियों का न होना..!


                                            हरदा के पास कुकरावद गांव की एक सांझ. फोटो-शीतल 

कई स्मृतियां एकदम ठंडी होती हैं. बेजान. जैसे विस्मृति के मुहाने पर पड़ा अंजान और सबसे अजनबी टुकड़ा. या फिर की कोई धुंधला दृश्य जिसे भुलाना भी भुला दिया गया हो. स्मृति के ये सबसे ठंडे टुकड़े मुझे उस समय सबसे ज्यादा याद आए जबकि मैं विस्मृति के सबसे सुखद समय में था. मैं उन चेहरों, बातों और मुलाकातों को कभी भूल नहीं पाया जिन्हें मैं कभी समझ नहीं पाया.

कुछ स्मृतियों का न होना दरअसल सबसे ज्यादा सबकुछ होता है. जैसे सबसे ज्यादा पहचानना अजनबी को होता है. चिह्नित वही होता है जो होता है. होना भर सच में "बहुत कुछ" होता है..

सबसे ज्यादा मायने रखता है. याद का सबसे आखिरी कोना क्योंकि भुलाया वही जाता है जो होता है..  जो "था" उसका होना भर बहुत कुछ होता है न रहने के बाद भी..!