हरदा के स्टेशन की एक शाम: तस्वीर बाकायदा मेरा फोन.
9 मई बीत रही है. आज कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा 4 हज़ार से पार है. मेरे पास सुबह पहुंचा आंकड़ों का अविश्वसनीय नोटिफिकेशन. यानी गिनती ठीक नहीं. यह रोज़ाना हो रहीं मृत्यु में सबसे ज्यादा है. सूचना है कि कोविड संक्रमित तो कम हो रहे हैं लेकिन मरने वालों की संख्या नहीं. लेकिन 4 लाख केस रोज़ होना संकेत है कि महामारी की रफ़्तार बेकाबू है और आने वाले कई 24 घंटे डराने वाले होंगे.
बहरहाल, बीते दो से 3 दिन में केरल डरा रहा है जबकि यूपी सहित राज्यों के गांव दहशत दे रहे हैं. राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली सहित महाराष्ट्र की कहानियां आपके हिस्से आई होंगी.
सच कहूं तो इन आंकड़ों और तथ्यों का साझाकरण किस विश्लेषण के साथ बताया जाए जबकि आसन्न संकट मृत्यु ही बांट रहा है और सरकार असहाय नजर आ रही हो. वैसे कड़वा सच कहूं तो मुझे सरकार नज़र नहीं आ रही. वह डिजिटल थी और उसका भास मात्र होता रहा. आभास को भास भासता है. यह वर्चुअल की रियल्टी है.
फिलहाल मैं इन आंकड़ों से खुदको डरने नहीं देता. सुबह रोज उठकर यही देखता हूं. मौत की खबरें सुनता हूं. आज गली में पड़ोस की दादी चलीं गईं उन्हें नमन किया और मातृत्व दिवस पर रोती हुई मां से एक दूर की मौसी के नहीं रहने की खबर सुनी जिसके हम बेहद करीब थे.
उधर भोपाल में बहन दूर के रिश्ते में 38 साल के भांजे की अचानक मौत को स्वीकार नहीं कर पा रही और रोज रात को उसे बचा लेने के छूटे हुए जतन साझा करती है. भाभी के भाई 6 दिन से एडमिट हैं उन्हें देखने जाने की बात चल रही है, पत्नी दुःखी है क्योंकि इकलौता भाई एडमिट है, काकी की असमय विदा उसके मन पर शोक बनकर छा गई है.
यह सब आंकड़े हैं. दुख की गिनतियां जिन्हें कोई नहीं गिन पाएगा.
फिर महामारियां भी मदद, आमद की खबरें और मृत्यु के गिरते बढ़ते आंकड़े कहां गिनती है..!
सोचता हूं आपदा की विस्मृति समाधान होती तो.
मानुष मन ठहरा जीवन जिधर दिखा वहीं संसार की बेल चढ़ा दी. एक अग्रज लेखक कहते हैं माहमारी ने मृत्यु की गरिमा छीन ली. मैं कहता हूं महामारी जब जाएगी तो जीवन की कीमत बता जाएगी.
सांझ की बेला चढ़ गई है.
आज मातृत्व दिवस था. मां दिया बत्ती कर सब्जी काट रही है.
मैं सुबह सुबह फिर मृत्यु के आंकड़े देखूंगा
चाय पीते हुए..!
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