मुशर्रफ इस समय युरोपिय देशों की यात्रा पर हैं। और उनका हर कदम पाकिस्तान में लोकतंत्र को खोज रहा है। अस्थिरता और अराजकता की कश्मकश में उलझे मुशर्रफ अपने लोकतंत्र की खोज के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग हासिल करने में कोई भी कसर नहीं छोडना चाहते हैं। वे दावोस में इकॉनामिक फोरम में शामिल होकर और कोंडालिजा राइस से लेकर गॉर्डन ब्राउन से मिलकर हर एक व्यक्ति को यह साफ कर देना चाहते हैं कि 18 फरवरी को होने वाले चुनावों में सरकार न केवल धांधली होने से बचाएगी, बल्कि देश को एक साफ और स्वच्छ तरह से चुना हुआ लोकतंत्र भी देगी।
मुशर्रफ पाकिस्तान हो चुके हैं , ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां मोदी गुजरात हो गए हैं। पर ये और बात है कि पाकिस्तान के इतिहास में हर एक सैनिक शासक ने पूरा पाकिस्तान बनने की कोशिश की। 1958 में आयूब खां ने राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा को हटाकर राष्ट्रपति की गद्दी खुद हथिया ली और अपनी धोखेबाजी और क्षूठ को वैधानिक और लोकतंत्र का चोगा भी पहनाया। मुर्शरफ ने भी यही किया है। हालांकि इन दोनों में अंतर था सिवाय इस बात को छोडकर कि ये दोनों ने सारी तिकडम भिडाकर अपनी गद्दी को पहले बचाना चाहा है। और फिर बाद में देश में लोकतंत्र लाना चाहा है।
आयूब खां तो पाकिस्तान के इतिहास में ऐसे आदमी हुए जिन्होंने जम्हूरित की आड में अपनी गद्दी को बचाने के लिए नया संविधान तक बना डाला। सच, आयूब खां पाकिस्तान में एक ऐसी पार्लियामेंट को बनाने की कोशिश में भिडे हुए थे जिसमे पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं हो। याने पार्टीविहीन पार्लियामेंट की कल्पना। जो निश्चित ही उन्होंने पूरी भी की। पर वह ज्यादा देर तक चली नहीं।
सांप को मारकर लाठी में दरार तक न आने देने की सोच रखकर आयूब खां ने केन्द्रिय शासन के लिए एक ही विधानसभा बनाई, जबकि पूर्वी और पश्चिमी भाग के लिए दो अलग-अलग। सबसे बडी बात इनके सदस्यों का चुनाव लोगों से सीधे तौर पर नहीं करवाया, मतलब इन सबके साथ विधानसभा प्रतिनिधियों को भी उन्होंने अकेला ही खडा कर दिया ताकि पार्टियों की तिकडमबाजी से न केवल आयूब खां और उनकी कुर्सी बचे रहे बल्कि उसकी आड में वे पाकिस्तान को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर नचा सकें। पर 1962 में बना यह बडे ही स्पेशल किस्म का पाकिस्तानी संविधान आयूब खां की पार्टीविहीन संसद की कल्पना को ज्यादा देर तक टिका नहीं सका।
देश में क्षेत्रिय पार्टियों को आयूब खां नहीं दबा सके और देश भर मे हुए जबर्दस्त विरोध के चलते आखिरकार वे हार मान गए। लेकिन उनकी यह हार उनका सत्ता से पूरी तरह से बेदखली नहीं थी बल्कि उनकी इसी अनूठी कल्पना की हार थी बावजूद इसके वे सत्ता पर कब्जा करने में कामयाब रहे। आवामी लीग के टुटते और ढहते हुए संगठन को अपने हक में समेटरकर! लेकिन फिर भी इस तरह से लोकतंत्र की नींव को ही गायब कर देने का मंसूबा रखने वाले आयूब खां जनता के विश्वास को ठोकर मारकर ज्यादा दिन सत्ता पर काबिज नहीं रह सके और आखिरकार उन्हें सत्ता से हटना ही पडा बिना कुछ किये, बिना कुछ सोचे।
बहरहाल, आयूब खां तो नहीं रह गए, बचे हैं मुशर्रफ जिन्होंने इमरजेंसी लगाकर अपनी परछाइयों में पाकिस्तान के हर राजनीतिक इतिहास को शामिल किया है। उनका हर कदम किसी न किसी शासक की कारगुजारियों का बडा नमूना है। सबसे बडा तो वह, जैसा कि उपर आयूब खां के संविधान की चर्चा का जिक्र किया याने मुशर्रफ ने तमाम विरोधों के बाद भी सेनाअध्यक्ष के पद पर रहते हुए चुनाव लडा और और संवैधानिक नियमों धता बताते हुए खुदको इलेक्ट भी करवा लिया। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भले ही इतिहास अपने सांस्कृतिक और सामाजिक बदलावों को लंबी दूरी तक न ले जाए पर उसे बनाने की कवायद में जुटी राजनीति अपने हर बदलाव के उसे दुहराती है।
मुशर्रफ अपने देश में जिस लोकतंत्र को तलाश रहे हैं निश्चित ही यह वह लोकतंत्र है जिसके वे खुद मालिक हैं। साथ ही उसके कर्ता-धर्ता भी। पर क्या वे इस लोकतंत्र को वे देश के बाहर से लाएंगे, जबकि वे जानते हैं कि लोकतंत्र देश के हर उस आदमी जरिये लाया जाता है जिसे सत्ता पर विश्वास होता है? अपनी सरकार पर भरोसा होता है ? पर क्या ये विश्वास मुशर्रफ के पास रह गया है। ये एक तेडा प्रश्न है। जिसके बारे में सोचना बहुत ही जरूरी है। तमाम अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषकों से लेकर दुनियाभर के दक्षिण ऐशियाई क्षेत्रों के विशेषज्ञ इस बात को साफ तौर से मानने लगे हैं कि इमरजंसी लगने और बेनजीर की हत्या के बाद पाकिस्तान के बिखराव और बंटने के आसार कई गुना बढ गए हैं। जलता हुआ सिंध, मुशर्रफ सरकार से नफरत करता पख्तून, बलूचिस्तान बडी बात नहीं है कि आने वाले कुछ ही समय में एक-एक अलग देश हो।
अमेरिका और ब्रिटेन नवाज और मुशर्रफ में समझौता करवाने की जी तोड कोशिश में लगे हुए हैं। कोशिश यही है कि आदमी का विश्वास सरकार पर लौटे, शायद इसी विश्वास की कमी थी जब 1972 में पाकिस्तान दो भागों में बंट गया। और आज फिर पाकिस्तान में उसी विश्वास की कमी है। जबकि मुशर्रफ दुनियाभर में विश्वास हासिल कर रहें हैं और जबकि उसकी सबसे ज्यादा जरूरत पाकिस्तान में हैं क्योंकि यदि इस आदमी को यदि वाकई में लोकतंत्र की तलाश है तो उसे घर में ही तलाशना होगा न कि बाहर...
मुशर्रफ पाकिस्तान हो चुके हैं , ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां मोदी गुजरात हो गए हैं। पर ये और बात है कि पाकिस्तान के इतिहास में हर एक सैनिक शासक ने पूरा पाकिस्तान बनने की कोशिश की। 1958 में आयूब खां ने राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा को हटाकर राष्ट्रपति की गद्दी खुद हथिया ली और अपनी धोखेबाजी और क्षूठ को वैधानिक और लोकतंत्र का चोगा भी पहनाया। मुर्शरफ ने भी यही किया है। हालांकि इन दोनों में अंतर था सिवाय इस बात को छोडकर कि ये दोनों ने सारी तिकडम भिडाकर अपनी गद्दी को पहले बचाना चाहा है। और फिर बाद में देश में लोकतंत्र लाना चाहा है।
आयूब खां तो पाकिस्तान के इतिहास में ऐसे आदमी हुए जिन्होंने जम्हूरित की आड में अपनी गद्दी को बचाने के लिए नया संविधान तक बना डाला। सच, आयूब खां पाकिस्तान में एक ऐसी पार्लियामेंट को बनाने की कोशिश में भिडे हुए थे जिसमे पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं हो। याने पार्टीविहीन पार्लियामेंट की कल्पना। जो निश्चित ही उन्होंने पूरी भी की। पर वह ज्यादा देर तक चली नहीं।
सांप को मारकर लाठी में दरार तक न आने देने की सोच रखकर आयूब खां ने केन्द्रिय शासन के लिए एक ही विधानसभा बनाई, जबकि पूर्वी और पश्चिमी भाग के लिए दो अलग-अलग। सबसे बडी बात इनके सदस्यों का चुनाव लोगों से सीधे तौर पर नहीं करवाया, मतलब इन सबके साथ विधानसभा प्रतिनिधियों को भी उन्होंने अकेला ही खडा कर दिया ताकि पार्टियों की तिकडमबाजी से न केवल आयूब खां और उनकी कुर्सी बचे रहे बल्कि उसकी आड में वे पाकिस्तान को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर नचा सकें। पर 1962 में बना यह बडे ही स्पेशल किस्म का पाकिस्तानी संविधान आयूब खां की पार्टीविहीन संसद की कल्पना को ज्यादा देर तक टिका नहीं सका।
देश में क्षेत्रिय पार्टियों को आयूब खां नहीं दबा सके और देश भर मे हुए जबर्दस्त विरोध के चलते आखिरकार वे हार मान गए। लेकिन उनकी यह हार उनका सत्ता से पूरी तरह से बेदखली नहीं थी बल्कि उनकी इसी अनूठी कल्पना की हार थी बावजूद इसके वे सत्ता पर कब्जा करने में कामयाब रहे। आवामी लीग के टुटते और ढहते हुए संगठन को अपने हक में समेटरकर! लेकिन फिर भी इस तरह से लोकतंत्र की नींव को ही गायब कर देने का मंसूबा रखने वाले आयूब खां जनता के विश्वास को ठोकर मारकर ज्यादा दिन सत्ता पर काबिज नहीं रह सके और आखिरकार उन्हें सत्ता से हटना ही पडा बिना कुछ किये, बिना कुछ सोचे।
बहरहाल, आयूब खां तो नहीं रह गए, बचे हैं मुशर्रफ जिन्होंने इमरजेंसी लगाकर अपनी परछाइयों में पाकिस्तान के हर राजनीतिक इतिहास को शामिल किया है। उनका हर कदम किसी न किसी शासक की कारगुजारियों का बडा नमूना है। सबसे बडा तो वह, जैसा कि उपर आयूब खां के संविधान की चर्चा का जिक्र किया याने मुशर्रफ ने तमाम विरोधों के बाद भी सेनाअध्यक्ष के पद पर रहते हुए चुनाव लडा और और संवैधानिक नियमों धता बताते हुए खुदको इलेक्ट भी करवा लिया। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भले ही इतिहास अपने सांस्कृतिक और सामाजिक बदलावों को लंबी दूरी तक न ले जाए पर उसे बनाने की कवायद में जुटी राजनीति अपने हर बदलाव के उसे दुहराती है।
मुशर्रफ अपने देश में जिस लोकतंत्र को तलाश रहे हैं निश्चित ही यह वह लोकतंत्र है जिसके वे खुद मालिक हैं। साथ ही उसके कर्ता-धर्ता भी। पर क्या वे इस लोकतंत्र को वे देश के बाहर से लाएंगे, जबकि वे जानते हैं कि लोकतंत्र देश के हर उस आदमी जरिये लाया जाता है जिसे सत्ता पर विश्वास होता है? अपनी सरकार पर भरोसा होता है ? पर क्या ये विश्वास मुशर्रफ के पास रह गया है। ये एक तेडा प्रश्न है। जिसके बारे में सोचना बहुत ही जरूरी है। तमाम अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषकों से लेकर दुनियाभर के दक्षिण ऐशियाई क्षेत्रों के विशेषज्ञ इस बात को साफ तौर से मानने लगे हैं कि इमरजंसी लगने और बेनजीर की हत्या के बाद पाकिस्तान के बिखराव और बंटने के आसार कई गुना बढ गए हैं। जलता हुआ सिंध, मुशर्रफ सरकार से नफरत करता पख्तून, बलूचिस्तान बडी बात नहीं है कि आने वाले कुछ ही समय में एक-एक अलग देश हो।
अमेरिका और ब्रिटेन नवाज और मुशर्रफ में समझौता करवाने की जी तोड कोशिश में लगे हुए हैं। कोशिश यही है कि आदमी का विश्वास सरकार पर लौटे, शायद इसी विश्वास की कमी थी जब 1972 में पाकिस्तान दो भागों में बंट गया। और आज फिर पाकिस्तान में उसी विश्वास की कमी है। जबकि मुशर्रफ दुनियाभर में विश्वास हासिल कर रहें हैं और जबकि उसकी सबसे ज्यादा जरूरत पाकिस्तान में हैं क्योंकि यदि इस आदमी को यदि वाकई में लोकतंत्र की तलाश है तो उसे घर में ही तलाशना होगा न कि बाहर...
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