धार्मिक आस्था के मनोवैज्ञानिक परीक्षण और उसकी वैज्ञानिक व्याख्या न केवल उलझा हुआ प्र्न हो सकता है बल्कि इस कार्य की अपनी सीमाएं हैं लेकिन बावजूद इसे किसी धर्म के प्रति कथित समाज की आस्था का सामाजिक मनोविज्ञान जानने की कम से कम इतनी सीमा तो होनी ही चाहिए कि वह धार्मिक आस्था और उसे धार्मिक अनुयायियों के आचार विचार और संस्कृति वृहद समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाए. इतना ही नहीं वह धर्म और उसे अनुयायी उसकी मुख्य धारा के साथ-साथ राष्ट्र के लिए कल्याणकारी हो.
इस समय इस्लाम अपने एक ऐसे रूप का सामना कर रहा है जो शायद इस्लाम के प्रति सच्ची श्रद्धा और पवित्र विश्वास रखने वाले अनुयायियों के लिए कभी समझने और आस्था का विषय नहीं रहा होगा. इस दौर के इस्लाम ने उने भीतर एक ऐसा अंतरद्वंद खड़ा किया है जिसने उन्हें समाज में अपने अस्तित्व और उसकी पहचान को छिपाने के लिए मजबूर कर दिया है. 9-11 की आतंकी घटना के बाद पिछले दस से पंद्रह सालों में दुनिया दो तरह से बंटी नजर आ रही है. भारत में भी इसके निशान साफ देखे जा सकते हैं. जेहाद के नाम पर इस्लाम को केद्र में रखकर आतंकी हमले, तालिबानियों के मध्ययुगीन बर्बर और अमानवीय आतंकी घटनाएं जिन्हें देखना तो दूर उसे बारे में सुनना ही रूह को कंपा जाता है हमें इस बात के लिए मजबूर करती हैं कि एक धर्म और उसे प्रति आस्था े सामान्य मनोविज्ञान के दर्शन को समझा जाए.
हाल ही में पाकिस्तान में तालिबानियों के तीन सिक्खों को अगवा करे उसमें से एक की गर्दन काटकर गुरूद्वारे के सामने फैं क देने की घटना भी हमारे सामने यही उत्पन्न करती है कि इस तरह हिंसा की ये प्रवृत्ति धार्मिक आस्था से कैसे जुड़ रही है और आखिर ये है क्या? क्या ये आस्था की विकृति, है? या फिर आस्था के पार जाकर इतिहास और अतीत को लाने की कोशिशें या फिर सत्ता और कुछ प्रलोभनों को पाने के लिए आस्था और धर्म की आड़ में छिपकर किया गया सुनियोजित षडयंत्र का हिस्सा? लेकिन यह कहकर भी इस हिंसा से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता. मान लो कि हम ये मान भी लें कि सत्ता से बाहर हुआ तालिबान सत्ता के लिए ये सब कर रहा है और इसका इस्लाम और जेहाद से कोई लेना देना नहीं है तो फिर जो तालिबानी आज सत्ता से बाहर हैं उन्हीं के हाथों मे पहले अफगानी सत्ता की बागडोर थी और वे लोग औरतों को पढ़ने लिखने की आजादी तो छोड़ दो बुर्खा न रखने जैसी सामान्य चीजों पर सौ कौड़े और फांसी जैसी सजा सुनाते रहे, बुढ़ों, बच्चों को दाढ़ी न रखने और नमाज न पढ़ने के साथ साथ कई कामों के न करने पर अंगारों पर चलने, और सिर कलम करने जैसे दंड देते रहे. उसी की सत्ता में ये बर्बर काम होते रहे. सच ये भी है है कि ये काम वे आज भी कर रहे हैं. बिना इस्लाम की इस शिक्षा को ग्रहण किये कि दुनिया का कोई धर्म मानवता से बड़ा नहीं हो सकता उसमें भी फिर मानवीय हिंसा तो सबसे दोयम दर्जे का काम है.
वैसे तालिबान के संदर्भ में ये तो आज मीडिया है कि इतना सिक्रय होकर टेलिविजन के स्क्रीन पर इन मध्ययुगीन घटनाओं का इतिहास समेट रहा है. और हम अब विचलित हो रहे हैं. पहले किन घाटियों, दरारें और रेगिस्तानों में इस्लाम के नाम पर क्या होता रहा न तो ये जाना गया और न ही आज का आधुनिक मुसलमान इसमें रूचि लेगा.
वैसे इस्लाम दुनिया के कई देशों में फैला और उसे अनुयायी तेजी से बनते गए इसे पीछे कई वजहें थी भारत के संदर्भ में उनमें से सबसे सरल ये थी कि एक की इबादत और बेहद जटिल संस्कृति (जिसमें जाति व्यवस्था का बड़ा दोष है) और दर्शन से छुटकारा. लेकिन इस्लाम के बेहद तेजी के साथ दुनिया भर में छा जाने के बावजूद भी इस्लाम क्या अपने मूल में परिवर्तन के बिना रह सका? क्या इस्लाम और उसे अनुयायियों ने देश विशेष की भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के चलते अपनी आस्था में कोई लचीलापन लाने की कोशिश की? जाहिर है इस सवाल का जवाब इस रूप में दिया जा सकता है कि इस्लाम ने अपनी आस्था के बाह्य परिवर्तनों, जैसे दाढ़ी रखना, टोपी पहनना,खतना करवाना जैसे कारको में न के बराबर परितर्न किया. आतंरिक आस्था के साथ शायद ही कोई गुंजाइश बची हो. हां एक बात जरूर है कि भारतीय संदर्भों में इस्लामिक बाह्य आस्थाओं में काफी परिवर्तन आए.
भारतीय परंपरा और संस्कृति में रचते बसते इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारत का इस्लाम कभी तालिबानी आस्था तक नहीं पहुंचेगा. लेकिन इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि तालिबानी इस्लाम भारत में अपनी जगह तलाशने की कोशिश तेजी से कर रहा है. शायद यही वजह है कि पढ़े लिखे यहां तक कि उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवक और प्रौढ़ मुस्लिम इस्लाम और उसे संदर्भ में चर्चा पर पलायन करते नजर आते हैं. मनोवैज्ञानिक यथार्थ ये है कि इस्लाम और कुरान की अच्छाई से कोसो दूर वे बड़े ही डरे-डरे और सहमें दिखाई देते हैं. मानों ये कहना चाह रहे हैं कि हम इस्लाम को केवल मानते हैं उसे जानने और समझने के लिए आप हमें बाध्य न ही करें तो बेहतर होगा.
सच कहें तो ये एक तथ्यात्मक कड़वी सच्चाई हो सकती है लेकिन इस्लाम औरउसकी आस्था के प्रति अंतरसंबंधों का जाल इतना उलझा हुआ है कि पिछले पचास से सौ सालों में इस्लाम में बेहद कम वैज्ञानिक और दार्शनकि पैदा हुए हैं. एक खलील जिब्राल हुए जिन्हें लेबनान से देश निकाला दे दिया गया. तस्लीमा,सलमान रूश्दी जैसे अनगिनत लोग फतवों में अभिव्यक्ति का गला घोटे देश निकाला झेल रहे हैं.
इन सारी ही बातों में एक बात समझ में आती है पहली ये कि इस्लाम पर उन लोगों का कब्जा हो गया है जो अपनी आस्था को सार्वभौमिक सत्य मानकर इतिहास और अतीत को पुर्नजीवित करना चाहते हैं. दूसरी ये कि धर्म के साथ अब आस्था भी कथित कायदों की तानाशाही के कब्जें में हैं जिसने इस्लाम जैसे मानवीय, दयालु और अहिंसक धर्म को बदनाम तो किया ही है साथ ही उसे चंद लोगों के बाप की जागीर भी बना दिया है. सलमान खान यदि गणेश प्रतिमा स्थापित करेंगे तो फतवा, शबाना और शाहरूख फिल्मों में काम करेंगे तो फतवा. रही सही कसर साइना मिर्जा पर निकलती है.
कुल मिलाकर बात यही है कि इस्लाम, आस्था और उसे मनोवैज्ञानिक दार्शनिक यथार्थ को समझने और इस आधार पर इस्लाम के सही अर्थों को समझे जाने की बेहद जरूरत है. भारत में इस्लाम अपने सबसे लोकतांत्रिक, रूप में है उसकी अभिव्यक्ति के सारे रूप भारतीय परंपरा, और संस्कृति में ढलकर अपनी एक अनूठी और नई संस्कृति निर्मित करते है. यही वजह है कि दुनिया में भारतीय मुसलमान अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. बिंदी, साड़ी, चूड़ियां पहने, मुस्लिम गृहस्थ महिलाएं और किसी ऑफिस के कैबिन में अपनी कार की चाबी पटकती मुस्लिम औरतें, भी यहां का ही हिस्सा है हालांकि ये संख्या कम है. लेकिन दूसरी ओर कॉलेज में जिंस और टी शर्ट के साथ कैंटिन में बतियाती लड़कियां अपने समय का नया इस्लाम रच रही हैं जो खुदा और उसकी इबादत के प्रति भी उतना ही आस्थावान है और मानवीयता के प्रति उतना ही ईमानदार. जाहिर है 21 वी सदी में इस्लाम जैसे सबसे ज्यादा लिबरल, मानवीय और अहिंसक धर्म को बचाना है तो उसे नये तरह से सोचा चाहिए कम से कम उतना तो नया कि वह तालिबानी इस्लाम न हो. -
2 टिप्पणियां:
इस देश की यह त्रासदी रही है कि हम तथाकथित धर्म निरपेक्ष बंधु जन खुले दिल से इस्लाम या ईसाई धर्म कि व्याख्या एवं सद् आलोचना करने से बचते हैं और उन्हें अगर दुनिया के किसी धर्म में बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती हैं तो वह हिंदू धर्म है. यह ठीक है कि इस धर्म में जाति व्यवस्था है परन्तु आज के संदर्भ में यह नगरों एवं महानगरों में अपना अस्तित्व और अर्थ खोती जा रही है. लेकिन यह भी कटु सत्य है कि विश्व के प्राचीनतम धर्म के उपर सदैव से हमले होते आये हैं परन्तु आज तक इसे मिटाया नहीं जा सका है क्योंकि यह धर्म जीवन की एक शैली है न कि कट्टरता का पुलिंदा जिसे लोग अक्सर धर्म का नाम दे देते हैं. यह भी सत्य है कि इस धर्म ने कभी भी किसी दूसरे देश पर धर्म को फ़ैलाने के लिए हमले एवं जबरन धर्म परिवर्तन नहीं किया है. आज कल जो कुछ भी प्रतिक्रिया की घटनाएं कभी कभी सामने आ रही हैं, उसे सम्पूर्ण धर्म का प्रतिनिधित्व तो नहीं कहा जा सकता परन्तु यह अवश्य है कि हजारों वर्षों से हिंदू धर्म के ऊपर हो रहे आक्रमणों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है....वह भी इस लिए कि कभी भी किसी पोप या मौलाना को या धर्म निरपेक्ष सरकारें इं लोगों के सार्वजनिक राष्ट्र विरोधी वक्तव्यों एवं कार्यों के बावजूद जेल भेजने से डरती है जबकि हिंदू धर्म का एक वृद्ध शंकराचार्य भरी मीडिया कुप्रचार के साथ जेल भेज दिया जाता है............
आपकी निम्नलिखित पक्तियां वर्तमान में इसके स्वरूप को दर्शाने में पूर्णतया उचित हैं. "इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारत का इस्लाम कभी तालिबानी आस्था तक नहीं पहुंचेगा. लेकिन इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि तालिबानी इस्लाम भारत में अपनी जगह तलाशने की कोशिश तेजी से कर रहा है. शायद यही वजह है कि पढ़े लिखे यहां तक कि उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवक और प्रौढ़ मुस्लिम इस्लाम और उसे संदर्भ में चर्चा पर पलायन करते नजर आते हैं."
aastha se aapka kya tatprya...? sabse paheli baat aastha per tarq ki izazt koi dharm nhai deta...? asli dharmwalambi dharm ki nazro...wah hai jo bina kintu parntu ke usse fallow karta hai...? haan islam ki jahan tak baat hai...jo apne kahuin hain...sahi hai...lekin aapne taliban ka example diya to usi islam me sufi ki bhi udaar parampra hai....kisi dharam me acchi aur burai...us dharm ke anuyai...gyan ke prakash me tay karenge...
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