शुक्रवार, 25 जून 2010

रावण की आस्था में खोट...

भारत में स्थित अयोध्या के राजा राम और उनके प्रति स्थापित जनमानस की आस्था यूं तो हजारों साल पुरानी पंरपरा का ही एक प्रवाह है. लेकिन संस्कृति की अविरल धाराओं में पंरपरा के जरिए आज तक हमारे सामने अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में बहकर आई मर्यादा पुरूषोत्तम राजा राम के प्रति इस जनआस्था को कई बार तोडने की कोशिश की गई है या फिर राम के प्रति इस आस्था को यू-टर्न देकर उन्हीं के युग के एक खलनायकी चरित्र रावण के प्रति भी इस आस्था को मोडने का प्रयास समय-समय पर होता रहा है.

दक्षिण भारत के द्रविड आंदोलन को इस संदर्भ में शायद ही भूला जा सकेगा, जिसके छींटे आज भी करूणानिधी में अपनी लंकाई तमिल आस्था के रूप में दिखाई पडते हैं. वैसे इस बारे में सभी को पता होगा ही कि अंग्रेजों के भारत को आर्य और द्रविडों में बांटे जाने की मनगढंत कहानी की आग में तमिलनाडू के दलित नेता ई.वी रामास्वामी नायकर यानी पेरियार ने घी डालकर दक्षिण भारत को द्रविड जन्मभूमि और उत्तर भारत को आर्याे की आगमन भूमि माना था और उसी के आधार ब्राह्मण विरोधी आंदोलन शुरू किया था. पेरियार के ब्राह्मण विरोधी दिमाग की उपज इस द्रविड आंदोलन के केंद्र में थे राम और रावण. पेरियार ने राम को राक्षस और रावण को महापुरूष माना था. इसके साथ उन्होंने हिन्दू धर्म में वेदों, पुराणों सहित पूरी रामायण की भी उल्टी व्याख्या तक कर डाली थी. पेरियार के द्रविड आंदोलन की आग ऐसी थी कि पूरे दक्षिण भारत में खासकर तमिलनाडु में जगह-जगह राम के गले में जूतों की माला पहनाई गई , कई ब्राह्मणों के गले से जनेऊ तोडी गई और कई जगह मंदिरों को तोडने का सिलसिला भी शुरू हुआ.नौबत यहां तक थी कि राम को राक्षस और रावण को भगवान बनाने पर उतारू पेरियार की पत्नी मनियामाई ने तो रामलीलाओं के मंचन का विरोध करते हुए जगह-जगह रावण लीला का भी आयोजन शुरू कर दिया था.

पेरियार ने ऐसा क्यों किया इसके पीछे उनके बनारस की कथा के बारे में सब जानते ही हैं जिसे बताने की कोई खास जरूरत नहीं है.बहरहाल, राम के देश में रावण जयंती मनाने की लोकतांत्रिक आजादी और कुछ लोगों के रावण से प्रेम कर बैठने की कहानी न तो नई है और न ही उसके पात्र कोई नए है. फिर चाहे वो सी एन अन्नादुरई हो, एम जी रामचंद्रन, करूणानिधी हों या फिर इस समय शायद मणिरत्नम जिनकी आस्था का रावण हाल ही में फिल्मी पर्दे पर अवतरित हो गया. ये और बात है कि उसके प्रति आस्था का वायरस दर्शकों ने थिएटरों में दहन कर दिया और अपने -अपने घर आकर घर के राजा राम के चरणो में उसकी राख अर्पित कर दी. लेकिन इस समय सवाल दक्षिण भारतीय निर्देशक मणि रत्नम की फिल्म रावण के बॉक्स ऑफिस पर पिटने और नही चल पाने का नहीं है बल्कि यह है कि इस फिल्मी रावण को राम से ज्यादा नैतिक और मर्यादित बताकर मणिरत्नम की कोशिश क्या द्रविड आंदोलन की बची हुई राख को फिर से जन की राममयी आस्था में मिलाने की तो नहीं है. फिल्म के अंत में अपने रावण बीरा से आखिरी में कहलाने से वे नहीं चूकते हैं कि -गोली चला एसपी आज दुनिया भी देख ले कि कौन है देवता और कौन है राक्षस ...

खास बात ये है कि जंगलों के बीच कुछ आदिवासियों के बीच का बीरा बाहरी व्यवस्था के दखल के खिलाफ वैचारिक संघर्ष की वह परिणिती है जिसे मणि बाबू ने राम के रूप में जन्म दिया है और उसके भीतर के उजलेपन को प्रतीकात्मक रूप से इतना धवल कर दिया है हर ली गई सीता घने जंगल, उंचे पहाड, झरने और उबड-खाबड रास्तों की लंका में रहने वाले इस रावण को अपने राम से कहीं ऊंचा पाती है और राम के पास लौटना ही नहीं चाहती, वह वहीं रह जाना चाहती है क्यों कि अयोध्या का राजा राम राज्य रावण की लंका से भी इतना गया बीता हो गया है कि उसे अशोक वाटिका की अपनी सेविकाएं ज्यादा भली दिखाई पड रही है.और उसने रावण में ही अपने असली राम को पा लिया है.

हांलाकि इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मणि बाबू का रावण अपने विकृत होते बाहरी राम राज्य वह प्रतीक है जो अपनी व्यवस्था के छत्तीसगढ, झारखंड, उडीसा से लेकर प बंगाल के जन को एक ओर जहां वास्तव में राम हो जाने के लिए प्रेरित कर हर ली गई लोकतंत्र की सीता को अयोध्या के रावण से छुडाना चाहता है. तो वहीं ऐश्वर्या की तन की खूबसूरती में मॉल में पिज्जा खाने वाली और मल्टीप्लेक्स के सामने बाइक पर खडी होकर रियल में रील जीने वाली पीढी की आंखों में इस व्यवस्था के नक्सलवाद से गर्भवती होने की धुंधली तस्वीर भी पेश करता है. लेकिन सवाल फिर आकर वहीं खडा होता है कि, व्यवस्था के खिलाफ सिर उठा रहे नक्सलवाद और पुलिसिया अत्याचार की कहानी को बताना ही है तो फिर जन आस्था के केंद्र राम को ही प्रतीकात्मक रूप से कटघरे में लाकर और उस रावण के प्रति सहानुभूति जगाकर ही क्यो इसे दिखाया गया है, जिसकी मृत्यु को दुनिया का सबसे बडा देश राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में मनाता है और जनमानस की आस्था की स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक रावण की मौत पर बधाइयां देते हैं. कोई दो राय नहीं कि दक्षिण भारत में रावण जयंति मनाना खुद के श्रेष्ठ और काल्पनिक द्रविड होने के बोध को पोसना ही है.

कभी चित्रकूट में राम मेला आयोजित करने और राम को राषट्रीय पुरूष की छबि देने वाले राम मनोहर लोहिया ने पेरियार की रावण आस्था की जमकर धज्जियां उडाई थी ये और बात है राम के प्रति रग-रग में आस्था रखने वाले और आस्था को लेकर सदियों से लोकतांत्रिक रहे भारत के आम जनमानस ने इसे कभी स्वीकार तो क्या इसके बारे में सोचा तक नहीं..बावजूद इसके रावण जयंती को सहर्ष रूप में स्वीकार किया, लेकिन राम के समतुल्य नहीं. कहीं मणि रत्नम का रावण इसीलिए तो थियेटरों में ही दहन नहीं हो गया.

3 टिप्‍पणियां:

Naren ने कहा…

As usual, very infomative ...i see your articles as the flower that keeps emitting fragrance time after time and the fragrance becomes more and more stronger....

keep sharing the knowledge fragrance ....

With Love & Regards from your brother...
Narendra

Madhukar Panday ने कहा…

मेरे अघोर गुरू के गुरू जी पूज्य अवधूत भगवान राम जी ने एक अवसर पर कहा था कि हम हिंदू मुस्लिम ईसाई, ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र ..यह सब बन सकते हैं लेकिन इंसान नहीं.... दक्षिण की राजनीति एवं फिल्मों का एक परस्पर बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध है....अक्सर वहा के राजनैतिक दलों की भावनाएं वहाँ की फिल्मो में दिखाई पड़ती हैं...यह आधा वर्ष हिंदी फिल्मों प्रमुख योद्धाओं के लिए अच्छा नहीं रहा..पहले कैट और अब यह रावण ...जनता ने दोनों को ठुकरा दिया क्यों आम जनता इनके प्रस्तुतिकरण से संतुष्ट नहीं है.....आपने बहुत ही अच्छा लिखा है और आपकी उस बात से मैं सहमत हूँ कि तथाकथित रामराज्य की दुर्व्यवास्थायें ही आज रावण राज्य को जन्म दे रही है... अगर रावण को मारना ही ही तो मूल पर चोट करनी होगी यानी राम राज्यियों को अपने अंदर बसे रावण और असुरी मानसिकता का वध सबसे पहले करना होगा...

ashwini ने कहा…

मणि बाबू की रावण और द्रविड आंदोलन को चित्रित करने मै आप ने जादा कहा . जबकि एषा कुछ भी नहीं है मणि और पेरियार दोनों का ही उदेश लाभ कमाना है मणि ने रुपया लगाया है पेरियार ने अप्पना जीवन. जहा तक रामायर का प्रश्न है आप तमिल रामायण जरुर पढ़े . आप फिर दोनों की तुलना करे आज के समय मै . राम को पिता के प्रति आदर भाव मिलता है तो रावण को माँ के प्रति दोनों ने ही अपने मात पिता की वचनों का आदर किया राम जंगल गए , तो रावण रजा बना . रावण एक महान राजनितिक था. जीसका अभवा राम की समपुर्ड जीवन मै मिलता है. मणि का रावण वही से सुरु होता है जन्हा रावण मरता है मणि ने भी एक सवाल छोड़ा है की अगर रावण राम से जीत जाता तो क्या ऐशा नहीं होता की रामायण की जगह रावायं का पाठ होता . आगर कोई इस्त्री आपको पसंद करे तो क्या उसका अपमान करना उचित है. राम जो भगवन है रावण से लड़ने के लिया उसे सीता का ही सहारा लेना पड़ा क्यों. अगर हम कही दुबारा मिले तो एस इतिहार पर और जेयदा समय देंगे . साथ एक और बात पेरियार का ब्राह्मणों का विरोध करना तो उसका एक कारन है जेसकी मै यंहा चर्चा नहीं कर सकता मेरे पास साकच नहीं है . लेकिन सिर्फ एक सूचना है जीसे किशी करना वश यंहा लिखना उचित नहीं लगा . सुभ कामना