(घर से लौटकर आने के बाद.. 12-3-2012.)
बहुत उदासी है कस्बे में मेरे
खाली है गलियां, सूने हैं ओटे
दिनों बाद मिला था मोहल्ला मेरा
चंद लोग थे पुराने, सपाट थे चेहरे
धूप के टुकडों में खाली मकां देखें
घर घर लगे थे मायूसी के पहरे
जवां नहीं दिखता, पुराने चौक का मजमा
भरकर बस जाती है शहर, सुबह सवेरे
गढी पर सोई पडी रहती है दोपहरी
अज्ञेय की "रोज" पर फडफडाते हैं कस्बे
कद अक्सर लगता है मेरा उनको उंचा
मैं भीड की हथेली ढूंढता हूं नसीब, चुराता हूं नजरें
एक बार दौडते लोहे से कस्बे को देखो
बियाबान है, उदासी है कस्बे में मेरे...
5 टिप्पणियां:
आप अगर रचना को सिर्फ भावो के साथ पढ़े और स्तिथियों की कल्पना करे तो निस्संदेह तमाम चीजे गोचर होती है..अपनी सोच और जहा तक दृष्टि जाती है शब्दों में काल-परिस्तिथियों को बांधने का जो प्रयास किया है वो सुन्दर है..
उत्साह बढाने के लिए शुक्रिया अमिताभ जी
...
मै भी अपने शहर को इतना ही शिद्दत से प्यार करता हूँ ..जब मैं नौकरी करता था और सालो बाद अपने शहर आया तो आप विश्वास शायद न करो पर हर एक गली , मोहल्ला , चौपाल सब कुछ बदल गया था ..मेरा बचपन और उससे जुड़े हर स्थानों पर गया ..खूब तलाशा पर अब वो सिर्फ यादो मैं है.. सोनू भाई आपको कोटिश: साधुवाद .. इतनी मार्मिकता के साथ आपने दिल की गहराई मैं जाकर तान छेड़ी.. !!
aaj kee sthitiyan kavita me sahaj hi ubhar aayi hain.
sonu ji,word verification ko please hatayen go to-comment>wordverification,isse comment karne me pareshani hoti hai.kripya anyatha mat len.
उत्साह बढाने के लिए शुक्रिया शालिनी जी.. और हां मैं अपनी ओर से इस तकनीकी दिक्कत को दुरूस्त करने का प्रयास करूंगा... !!!
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